Sundha Mata Temple: सुंधा पर्वत पर विराजमान हैं मां चामुंडा, यहां गिरी थी सती की नासिका

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 10 Sep, 2023 10:36 AM

sundha mata temple

सम्पूर्ण भारत तीर्थों की भूमि है। यहां के विभिन्न स्थलों पर मनीषियों, संतों एवं वीरों की महिमा के चिन्ह मिलते हैं। भारत की पश्चिमी सीमा पर स्थित एवं भारत के सबसे बड़े

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Sundha Mata Temple Rajasthan: सम्पूर्ण भारत तीर्थों की भूमि है। यहां के विभिन्न स्थलों पर मनीषियों, संतों एवं वीरों की महिमा के चिन्ह मिलते हैं। भारत की पश्चिमी सीमा पर स्थित एवं भारत के सबसे बड़े क्षेत्रफल वाले राज्य राजस्थान की मरुभूमि का दूर-दूर तक फैला क्षेत्र अपनी विशिष्ठ छवि रखता है। वीरता के लिए प्रसिद्ध मरुभूमि राजस्थान में तीर्थों एवं दर्शनीय स्थलों की कमी नहीं है। राजस्थान में जहां एक और हरितिमा से भरपूर अरावली पर्वतमालाएं हैं तो वहीं मीलों तक लहराता रेत का सुनहरा समुद्र अपनी अलग ही छटा बिखेरता है।
इसी मरुभूमि की हृदय रेखा अरावली पर्वतमाला के पश्चिम में स्थित जालोर जिले की भीनमाल तहसील के अंतर्गत जसवंतपुरा पंचायत समिति क्षेत्र में स्थित ऐतिहासिक एवं पौराणिक सौगनिधक पर्वत को सुंधा पहाड़ के नाम से जाना जाता है। इसी सुंधा पर्वत पर विराजमान है मां चामुंडा जिसे सुंधा माता नाम से जाना एवं पुकारा जाता है।

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यह ऐतिहासिक एवं प्राचीन तीर्थ न केवल चामुंडा माता का दर्शनीय स्थल है वरन् इसकी प्राकृतिक छटा, मनोरम वातावरण, पहाड़ियों एवं बिखरी हरियाली, कल-कल बहते  झरने, बंदरों का उछलना-कूदना आदि एक अलग ही दृश्य उपस्थित करते है। यहां पर न केवल राजस्थान वरन् गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश आदि के लाखों श्रद्धालु प्रतिवर्ष आते हैं। यहां भाद्रपद, अश्विन, चैत्र एवं वैशाख माह में विशेष मेलों का आयोजन किया जाता है।

अश्विन नवरात्रि में गरबे एवं भक्ति संगीत के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। वैसे हर माह पूर्णिमा को दर्शनार्थी यहां आते हैं।
सुंधा माता के नाम से प्रसिद्ध तीर्थ स्थल का उल्लेख पौराणिक एवं ऐतिहासिक ग्रंथों एवं शिलालेखों में मिलता है। यह पर्वत सागी चन्दोई एवं धाणा नदियों का उद्गम स्थल रहा है। वर्षा के समय सम्पूर्ण पर्वत नयनाभिराम दृश्यों से भर जाता है। इस पर्वत पर कई प्रकार की औषधियों में प्रयुक्त होने वाली जड़ी-बूटियां मिलती हैं। यहां के पर्वत ग्रेनाइट एवं रायोलाइट के मिश्रण हैं। रीमाल माहातम्य के अंतर्गत वर्णित बिल वृक्ष भी यहां सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं। इस प्रकार यह तीर्थ प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है।

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इतिहास : यह मंदिर काफी प्राचीन है। जालोर के चौहान शासक चाचिगदेव (उदय सिंह के पुत्र) ने संवत् 1312 में इस मंदिर का निर्माण करवाया तथा उन्होंने ही मंदिर के मंडप का निर्माण करवा कर संवत् 1319 में अक्षय तृतीया के दिन ब्राह्मणों द्वारा यहां देवी की प्रतिमा प्रतिष्ठ करवाई। पूर्व में यहां चामुंडा को शराज अर्पण एवं बलि की परम्परा थी परंतु 1976 में मालवाडा के ठाकुर दुर्जन सिंह जी ने एक ट्रस्ट की स्थापना कर शराब एवं बलि को निषेध कर सात्विक पूजन पद्धति प्रारंभ करवाई। उनके प्रयासों से ही यहां चामुंडा माता ट्रस्ट का निर्माण किया गया जो इस तीर्थ का विकास लगातार कर रहा है।

किवदंती : इस मंदिर के बारे में किवदंती है कि सतयुग में एक समय राजा दक्ष प्रजापति ने शिव से अपमानित होकर बृहस्पति नामक यज्ञ किया जिसमें उसने शिव एवं सती को आमंत्रित नहीं किया। निमंत्रण न पाकर भी सती अपने पिता के यहां आ गई।
घर आने पर भी राजा दक्ष ने सती का सत्कार नहीं किया। अपितु शिव की बुराई की। पति की निंदा सती से सहन नहीं हुई तथा सती यज्ञकुंड में कूद गई। इस बात का पता चलने पर शिव अपने वीर भद्रादि अनुचरों के साथ वहां पहुंचे तथा यज्ञ को विध्वंस कर उन्मत अवस्था में सती की मृत देह लेकर नाचने लगे।

कहा जाता है कि तब विष्णु ने सुदर्शन चक्र से सती के अंग-अंग को काट डाला। सती के अंग-प्रत्यंग जहां-जहां गिरे वे सभी स्थल शक्तिपीठ के नाम से प्रसिद्ध हुए। सुगंधा नामक स्थान पर सती की नासिका गिरी तथा उसी के बाद वह शक्तिपीठ बनी।

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Historical evidence ऐतिहासिक प्रमाण
इस पर्वत के विषय में श्रीमाल माहात्मा के दसवें अध्याय में कहा गया है कि यहां एक बड़ा गड्डा था जिसे भरने के लिए वशिष्ट पर्वत को लेकर आए तथा उस सौगांधिक नामक पर्वत से 100 ब्राह्मण आए जिन्होंने यहां तपस्या की। वस्तुत: यहां विभिन्न तपस्वियों ने साधना की है तथा उनके परिवार भी इस तीर्थ से जुड़े।

शिला लेख : इस मंदिर में प्राप्त कुछ शिलालेख भी इसके प्राचीन होने की कहानी कहते हैं।

मूर्तियां : मंदिर प्राचीन एवं कलात्मक होने के कारण इस क्षेत्र की वास्तुकला का प्रतिनिधित्व तो करता ही है, साथ ही इसकी मूर्तियां भी यहां की महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय उपलब्धियां बयान करती हैं।

ये कलात्मक होने के अलावा मूर्तिकला पर भी पर्याप्त प्रकाश डालती हैं। ये प्राचीन होने के कारण यहां की धार्मिक परम्पराओं तथा उनमें आए परिवर्तनों का भी स्पष्ट संकेत करती हैं।

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सुंधा मंदिर में मुख्य प्रतिमा अघटेश्वरी मां चामुंडा की है जो लाल पाषाण पर शवारूढ़ एवं 4 भुजाओं से युक्त है। इसके पास ही सप्त मातृकाएं (बाराही रारसिंही, ब्रह्मणी, शंभवी, वैष्णवी, कौमारी ) की प्रतिमाएं विराजमान हैं।

कैसे पहुंचे : यह स्थान जालोर से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। जालोर, भीनमाल, सिरोही, अहमदाबाद आदि स्थानों से सीधी बस सेवा उपलब्ध है। राजपुरा गांव से 2 किलोमीटर की दूरी पर इसकी तलहटी है जहां से पर्वत पर चढ़ाई की जाती है। 

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