Surdas Jayanti- जानें, संत सूरदास के संबंध में कुछ अनसुनी बातें

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 11 May, 2024 06:58 AM

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संत सूरदास एक महान भक्ति कवि एवं हिन्दी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं। उनका आदर्श चरित्र और जीवन दर्शन अंधेरे को भी उजाला प्रदान करता है। सूरदास जी जहां भक्त, वैरागी, त्यागी और

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Surdas Jayanti 2024- संत सूरदास एक महान भक्ति कवि एवं हिन्दी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं। उनका आदर्श चरित्र और जीवन दर्शन अंधेरे को भी उजाला प्रदान करता है। सूरदास जी जहां भक्त, वैरागी, त्यागी और संत थे, वहीं वह उत्कृष्टतम काव्य प्रतिभा के धनी भी थे। इसलिए उनके अन्तर्मन की पावन भक्तिधारा मन्दाकिनी की भांति कल-कल करके प्रस्फुटित हुई।

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सूरदास आशु कवि थे। उन्होंने काव्य लिखा नहीं बल्कि उनके मुखारविन्द से स्वत: श्री कृष्ण की लीला गान करते हुए पद झड़ने लगे थे और वे पद रूप सामृत-बिन्दू की तरह एकत्र होकर सागर ही नहीं काव्य रस का महासागर बन गए, जिसे ‘सूरसागर’ के नाम से जाना जाता है। महाकवि सूरदास जी का जीवन वृत स्वल्प अंश में ही ज्ञात है। उनके लिए महत्व अपनी अस्मिता का नहीं, आराध्य का था। इसलिए उनके जीवन संबंधी साक्ष्य नहीं के बराबर मिलते हैं।

उनका जन्म एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में संभवत: सन् 1535 की वैशाख शुक्ल पंचमी मंगलवार को हुआ। जन्म स्थान के सम्बन्ध में चार स्थान प्रसिद्ध हैं- गोपांचल, मथुरा का कोई एक गांव, रुनकता तथा सीही।

चार भाइयों में सूरदास सबसे छोटे एवं नेत्रहीन थे। माता-पिता इनकी ओर से उदासीन रहते थे। निर्धनता एवं माता-पिता की उनके प्रति उदासीनता ने उन्हें विरक्त बना दिया। वह घर से निकल कर चार कोस की दूरी पर तालाब के किनारे रहने लगे। 

वह संगीत-शास्त्र के परम ज्ञाता, काव्य नेपुण्य एवं गान-विद्या विशारद विषय में प्रतिभा सम्पन्न थे। इनके गोलोकवासी होने के समय के सम्बन्ध में भी विद्वान एक मत नहीं हैं। अधिकांश विद्वान इनका निधन सं. 1640 का समय मानते हैं। इस दृष्टि से उनको 105 वर्ष की दीर्घायु मिली।

कुछ लोगों के अनुसार सम्राट अकबर सूरदास से मिलने आए थे। कहते हैं कि तानसेन ने अकबर के समक्ष सूरदास का एक पद गाया। पद के भाव से मुग्ध होकर सम्राट अकबर मथुरा जाकर सूरदास से मिले। सूरदास ने बादशाह को मना रे माधव सौं करु प्रीती गाकर सुनाया। 

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बादशाह ने प्रसन्न होकर सूरदास को अपना यश वर्णन करने का आग्रह किया। तब निर्लिप्त सूरदास ने नाहिन रहनो मन में ठौर पद गाया। 

पद के अंतिम चरण सूर ऐसे दरस को ए मरत लोचन व्यास को लेकर बादशाह ने पूछा ‘‘सूरदास जी आप नेत्र ज्योति से वंचित हैं, फिर आपके नेत्र दरस को कैसे प्यासे मरते हैं?’’ 

सूरदास जी ने कहा, ‘‘ये  नेत्र भगवान को देखते हैं और उस स्वरूप का रसपान प्रतिक्षण करने पर भी अतृप्त बने रहते हैं।’’

अकबर ने सूरदास से द्रव्य-भेंट स्वीकार करने का अनुरोध किया पर निडरतापूर्वक भेंट अस्वीकार करते हुए सूरदास जी ने कहा आज पीछे हमको कबहूं फेरि मत बुलाइयो और मोको कबहूं लिलियो मती। 

सूरदास जी का काव्य श्रीमद्भागवत से सर्वाधिक प्रभावित रहा है। उन्होंने आजीवन श्री गोवद्र्धन नाथ जी के चरणों में बैठकर ब्रजभाषा काव्य के रूप में भागीरथी का संचार किया। 

सूरदास जी कृष्ण भक्ति धारा के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। नागरी प्रचारिणी सभा की खोज के अनुसार सूरदास जी के नाम से 25 रचनाएं उपलब्ध हैं परन्तु अधिकांश विद्वान उनकी केवल तीन रचनाओं सूरसागर, सूर-सारवली और साहित्य लहरी को ही प्रामाणिक मानते हैं। 

‘सूरसागर’ सूरदास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसकी लोकप्रियता का पता इससे चलता है कि देश-विदेश के विभिन्न पुस्तकालयों में इसकी सौ से अधिक हस्तलिखित प्रतियां उपलब्ध हैं। अमरीका में हार्वर्ड विश्वविद्यालय के पुस्तकालय एवं ब्रिटिश म्यूजियम पुस्तकालय में भी ‘सूरसागर’ की हस्तलिखित प्रतियां सुरक्षित हैं।

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इस ग्रंथ में अधिकांश पदों में कृष्ण लीलाओं का वर्णन श्रीमद्भागवत के आधार पर किया गया है और कुछ पदों में विनय-भावना की अभिव्यक्ति हुई है। ‘सूर-सारवली’ में कुल 1107 पद हैं, जिनमें होली के रूपक से सृष्टि-रचना एवं विभिन्न अवतारों का वर्णन किया गया है। 

सूरदास जी ने कृष्ण के बचपन एवं किशोरावस्था की लीलाओं को ब्रज के तत्कालीन जीवन की पृष्ठभूमि में प्रस्तुत किया है। कृष्ण के जन्मोत्सव, अन्नप्राशन, वर्षगांठ आदि प्रसंगों के वर्णन में ब्रज के तत्कालीन जीवन का प्रतिबिम्ब है। 

राष्ट्रीय जीवन में सूरदास
संत सूरदास द्वारा रचित काव्य साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान भारतीय लोक संस्कृति और परम्परा को उच्च शिखर पर आसीन कराने में हुआ। उन्होंने द्वापर के नायक श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं का समसामयिक लोक-आस्था के अनुरूप चित्रण किया और भगवान को एक लोकनायक के रूप में प्रस्तुत किया। 

भगवान को लौकिक रूप में प्रस्तुत कर सूरदास जी ने  हमारे समाज को एक नई आस्था एवं अवधारणा दी है। वास्तव में सूरदास जी का काव्य लालित्य, वात्सल्य और प्रेम का काव्य है।

‘सूरदास कारी कामरि पै चढ़त न दूजौ रंग’

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