स्वामी प्रभुपाद श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप: जीवन का चरम लक्ष्य

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 26 Aug, 2023 10:07 AM

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यत्सां यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते। एकं सां‍ख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति।।5.5।।

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यत्सां यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते। एकं सां‍ख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति।।5.5।।

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अनुवाद एवं तात्पर्य : जो यह जानता है कि विश्लेषणात्मक अध्ययन (सांख्य) द्वारा प्राप्य स्थान भक्ति द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है और इस तरह जो सांख्ययोग योग तथा भक्तियोग को एकसमान देखता है, वहीं वस्तुओं को यथारूप में देखता है।

दार्शनिक शोध (सांख्य) का वास्तविक उद्देश्य जीवन के चरम लक्ष्य की खोज है। चूंकि जीवन का चरम लक्ष्य आत्म साक्षात्कार है, अत: इन दोनों विधियों से प्राप्त होने वाले परिणामों में कोई अंतर नहीं है। सांख्य दार्शनिक शोध के द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुंचा है, कि जीव भौतिक जगत का नहीं अपितु पूर्ण परमात्मा का अंश है। फलत: जीवात्मा का भौतिक जगत से कोई सरोकार नहीं होता, उसके सारे कार्य परमेश्वर से संबद्ध होने चाहिए। जब वह कृष्णभावनामृत वश कार्य करता है, तभी वह अपनी स्वाभाविक स्थिति में होता है।

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सांख्य विधि में मनुष्य को पदार्थ से विरक्त होना पड़ता है और भक्तियोग में उसे कृष्णभावनाभावित कर्म में आसक्त होना होता है। वस्तुत: दोनों ही विधियां एक हैं यद्यपि ऊपर से एक विधि में विरक्ति दिखती है और दूसरे में आसक्ति है। पदार्थ से विरक्ति और कृष्ण में आसक्ति को जो एक ही तरह देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप में देखता है।

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