Edited By Niyati Bhandari,Updated: 20 Sep, 2023 08:09 AM
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श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता: ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवा भसा॥5.10॥ अनुवाद एवं तात्पर्य: जो व्यक्ति कर्मफलों को परमेश्वर को समर्पित करके
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श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता: ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवा भसा॥5.10॥
अनुवाद एवं तात्पर्य: जो व्यक्ति कर्मफलों को परमेश्वर को समर्पित करके आसक्ति रहित होकर अपना कर्म करता है, वह पापकर्मों से उसी प्रकार अप्रभावित रहता है, जिस प्रकार कमलपत्र को जल छू नहीं पाता।
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यहां पर ब्रह्मणि का अर्थ ‘कृष्णभावनामृत में’ है। यह भौतिक जगत प्रकृति के तीन गुणों की समग्र अभिव्यक्ति है, जिसे प्रधान की संज्ञा दी जाती है। ईशोपनिषद् में कहा गया है कि सारी वस्तुएं परब्रह्म या कृष्ण से संबंधित हैं, वे केवल उन्हीं की हैं। जो यह भलीभांति जानता है कि प्रत्येक वस्तु कृष्ण की है और वे प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं, अत: प्रत्येक वस्तु भगवान की सेवा में ही नियोजित है, उसे स्वभावत: शुभ-अशुभ कर्मफलों से कोई प्रयोजन नहीं रहता।
यहां तक कि विशेष प्रकार का कर्म संपन्न करने के लिए भगवान द्वारा प्रदत्त मनुष्य का शरीर भी कृष्णभावनामृत में संलग्न किया जा सकता है। तब यह पापकर्मों के कल्मष से वैसे ही परे रहता है, जैसे कि कमलपत्र जल में रह कर भी भीगता नहीं।
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भगवान भी गीता में (3.30) कहते हैं- मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य- संपूर्ण कर्मों को मुझे (कृष्ण को) समर्पित करो।
तात्पर्य यह कि कृष्णभावनामृत- विहीन पुरुष शरीर एवं इंद्रियों को अपना स्वरूप समझ कर कर्म करता है, किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति यह समझ कर कर्म करता है कि यह देह कृष्ण की संपत्ति है, अत: इसे कृष्ण की सेवा में प्रवृत्त होना चाहिए।
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