Edited By Prachi Sharma,Updated: 11 Dec, 2023 10:54 AM
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बुद्धिमान मनुष्य दुख के कारणों में भाग नहीं लेता जोकि भौतिक इंद्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होते हैं। हे कुंतीपुत्र ! ऐसे भोगों का आदि तथा
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ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्तः: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:॥5.22॥
अनुवाद एवं तात्पर्य: बुद्धिमान मनुष्य दुख के कारणों में भाग नहीं लेता जोकि भौतिक इंद्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होते हैं। हे कुंतीपुत्र ! ऐसे भोगों का आदि तथा अंत होता है, अत: चतुर व्यक्ति उनमें आनंद नहीं लेता।
भौतिक इंद्रिय सुख उन इंद्रियों के स्पर्श से अद्भुत हैं, जो नाशवान हैं क्योंकि शरीर स्वयं नाशवान है। मुक्तात्मा किसी नाशवान वस्तु में रुचि नहीं रखता। दिव्य आनंद के सुखों से भलीभांति अवगत वह भला मिथ्या सुख के लिए क्यों सहमत होगा ?
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पद्मपुराण में कहा गया है -
रमन्ते योगिनोऽनन्ते सत्यानन्दे चिदात्मनि।
इति रामपदेनासौ परं ब्रह्माभिधीयते॥
‘‘योगीजन परमसत्य में रमण करते हुए अनंत दिव्यसुख प्राप्त करते हैं इसीलिए परमसत्य को राम भी कहा जाता है।’’
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भागवत में (5.5.1) भी कहा गया है -
नायं देहो देहभाजां नृलोके कष्टान् कामानर्हते विड्भुजां ये।
तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्वं शुद्येद् यस्माद् ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम्॥
‘‘हे पुत्रो, इस मनुष्य योनि में इंद्रियसुख के लिए अधिक श्रम करना व्यर्थ है। ऐसा सुख तो शूकरों को भी प्राप्य है। इसकी अपेक्षा तुम्हें इस जीवन में तप करना चाहिए, जिससे तुम्हारा जीवन पवित्र हो जाए और तुम असीम दिव्यसुख प्राप्त कर सको।’’
अत: जो यर्थार्थ योगी या दिव्य ज्ञानी हैं, वे इंद्रियसुखों की ओर आकृष्ट नहीं होते क्योंकि ये निरंतर भवरोग के कारण हैं। जो भौतिक सुख के प्रति जितना ही आसक्त होता है, उसे उतने ही अधिक भौतिक दुख मिलते हैं।
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