Edited By Prachi Sharma,Updated: 28 Dec, 2023 11:54 AM
जो अंत:करण में सुख का अनुभव करता है, जो कर्मठ है और अन्त:करण में ही रमण करता है तथा जिसका लक्ष्य अंतर्मुखी होता है, वह सचमुच
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योऽन्त:सुखोऽन्तरारामस्तथान्तज्र्योतिरेव य:।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥5.24॥
अनुवाद: जो अंत:करण में सुख का अनुभव करता है, जो कर्मठ है और अन्त:करण में ही रमण करता है तथा जिसका लक्ष्य अंतर्मुखी होता है, वह सचमुच पूर्णयोगी है। वह परब्रह्म में मुक्ति पाता है और अन्ततोगत्वा ब्रह्म को प्राप्त होता है।
तात्पर्य: जब तक मनुष्य अपने अंत:करण में सुख का अनुभव नहीं करता, तब तक भला ब्राह्यसुख को प्राप्त करने वाली ब्राह्य क्रियाओं से वह कैसे छूट सकता है? मुक्त पुरुष वास्तविक अनुभव द्वारा सुख भोगता है। अत: वह किसी भी स्थान में मौनभाव से बैठकर अंत:करण में जीवन के कार्याकलापों का आनंद लेता है। ऐसा मुक्त पुरुष कभी ब्राह्य भौतिक सुख की कामना नहीं करता। यह अवस्था ब्रह्मभूत कहलाती है, जिसे प्राप्त करने पर भगवद्धाम जाना निश्चित है।