Edited By Prachi Sharma,Updated: 18 Jan, 2024 08:49 AM
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अनुवाद: जो क्रोध तथा समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हैं जो स्वरूपसिद्ध, आत्मसंयमी है और संसिद्धि के लिए निरंतर प्रयास करते हैं
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कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्॥5.26॥
अनुवाद: जो क्रोध तथा समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हैं जो स्वरूपसिद्ध, आत्मसंयमी है और संसिद्धि के लिए निरंतर प्रयास करते हैं, उनकी मुक्ति निकट भविष्य में सुनिश्चित है।
तात्पर्य: मोक्ष के लिए सतत् प्रयत्नशील रहने वाले साधु पुरुषों में से जो कृष्णभावनाभावित होता है, वह सर्वश्रेष्ठ है। इस तथ्य की पुष्टि भागवत में (4.22.39) इस प्रकार हुई है-
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यत्पाद्पंकजपलाशविलासभक्त्या
कर्माशयं ग्रथितमुद्ग्रथयन्ति सन्त:।
तद्वन्न रिक्तमतयो यतयोऽपि रुद्ध-
स्रोतोगणास्तमरणं भज वासुदेवम्॥
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‘‘भक्तिपूर्वक भगवान वासुदेव की पूजा करने का प्रयास तो करो। बड़े से बड़े साधु पुरुष भी इंद्रियों के वेग को उतनी कुशलता से रोक पाने में समर्थ नहीं हो पाते जितना कि वे, जो सकामकर्मों की तीव्र इच्छा को समूल नष्ट करके और भगवान के चरणकमलों की सेवा करके दिव्य आनंद में लीन रहते हैं।’’
बद्धजीव में कर्म के फलों को भोगने की इच्छा इतनी बलवती होती है कि ऋषियों-मुनियों तक के लिए कठोर परिश्रम के बावजूद ऐसी इच्छाओं को वश में करना कठिन होता है। जो भगवद्भक्त कृष्णचेतना में निरंतर भक्ति करता है और आत्म-साक्षात्कार में सिद्ध होता है, वह शीघ्र ही मुक्ति प्राप्त करता है।
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मछली अपने बच्चों की केवल देखभाल करती है। कछुआ केवल चिंतन द्वारा अपने बच्चों को पालता है। कछुआ अपने अंडे स्थल में देता है और स्वयं जल में रहने के कारण निरंतर अंडों का चिंतन करता रहता है। इसी प्रकार भगवद्भक्त, भगवद्धाम से दूर स्थित रहकर भी भगवान का चिंतन करके कृष्णभावनामृत द्वारा उनके धाम पहुंच सकता है। उसे भौतिक क्लेशों का अनुभव नहीं होता। यह जीवन अवस्था ब्रह्मनिर्वाण अर्थात भगवान में निरंतर लीन रहने के कारण भौतिक कष्टों का अभाव कहलाती है।