श्रीमद्भगवद् गीता के पंचम अध्याय से जानें, कर्मयोग-कृष्णभावनाभावित कर्म का तात्पर्य

Edited By Prachi Sharma,Updated: 27 Jan, 2024 09:55 AM

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नुवाद एवं तात्पर्य: मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी

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भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्। 
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।5.29।

अनुवाद एवं तात्पर्य: मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शांति लाभ करता है।

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माया के वशीभूत सारे बद्धजीव इस संसार में शांति प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहते हैं, किन्तु भगवद्गीता के इस अंश में वर्णित शांति के सूत्र को वे नहीं जानते। शांति का सबसे बड़ा सूत्र यही है कि भगवान कृष्ण समस्त मानवीय कर्मों के भोक्ता हैं। मनुष्यों को चाहिए कि प्रत्येक वस्तु भगवान की दिव्य सेवा में समर्पित कर दें क्योंकि वे ही समस्त लोकों तथा उनमें रहने वाले देवताओं के स्वामी हैं। वे बड़े से बड़े देवता, शिव तथा ब्रह्मा से भी महान हैं। वेदों में (श्वेताश्वतार उपनिषद 6.7) भगवान को तमीश्वराणां परमं महेश्वरम कहा गया है।

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वास्तविकता तो यह है कि सर्वत्र भगवान की माया का प्रभुत्व है। भगवान प्रकृति (माया) के स्वामी हैं और बद्धजीव प्रकृति के कठोर अनुशासन के अंतर्गत हैं जब तक कोई इन तथ्यों को समझ नहीं लेता तब तक संसार में व्यष्टि या समाष्टि रूप से शांति प्राप्त कर पाना संभव नहीं है। कृष्णभावनामृत का यही अर्थ है। भगवान कृष्ण परमेश्वर हैं तथा देवताओं सहित सारे जीव उनके आश्रित हैं। पूर्ण कृष्णभावनामृत में रह कर ही पूर्ण शांति प्राप्त की जा सकती है।इस प्रकार श्रीमद्भगवद् गीता के पंचम अध्याय ‘कर्मयोग-कृष्णभावनाभावित कर्म’ का भक्ति वेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ।

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