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स्वामी प्रभुपाद: मन को आत्मा में स्थित करना

Edited By Prachi Sharma,Updated: 04 Jun, 2024 07:26 AM

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अनुवाद : धीरे-धीरे, क्रमश: पूर्ण विश्वासपूर्वक बुद्धि के द्वारा समाधि में स्थित होना चाहिए और इस प्रकार मन को आत्मा में ही स्थित करना चाहिए

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शनै: शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया।
आत्मसंस्थं मन: कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत॥6.25॥

PunjabKesari Swami Prabhupada

अनुवाद : धीरे-धीरे, क्रमश: पूर्ण विश्वासपूर्वक बुद्धि के द्वारा समाधि में स्थित होना चाहिए और इस प्रकार मन को आत्मा में ही स्थित करना चाहिए तथा अन्य कुछ भी नहीं सोचना चाहिए।

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तात्पर्य : समुचित विश्वास तथा बुद्धि के द्वारा मनुष्य को धीरे-धीरे सारे इंद्रियकर्म करने बंद कर देने चाहिएं। यह प्रत्याहार कहलाता है। मन को विश्वास, ध्यान तथा इंद्रिय निवृत्ति द्वारा वश में करते हुए समाधि में स्थिर करना चाहिए। उस समय देहात्मबुद्धि में अनुरक्त होने की कोई संभावना नहीं रह जाती। दूसरे शब्दों में, जब तक इस शरीर का अस्तित्व है, तब तक मनुष्य पदार्थ में लगा रहता है, किन्तु इसे इंद्रितृप्ति के विषय में नहीं सोचना चाहिए।
उसे परमात्मा के आनंद के अतिरिक्त किसी अन्य आनंद का चिंतन नहीं करना चाहिए। 

कृष्णभावनामृत का अभ्यास करने से यह अवस्था सहज ही प्राप्त की जा सकती है।

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