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शुद्ध इंद्रियों के द्वारा सेवा ही कृष्णचेतना या कृष्णभावनामृत कहलाती है

Edited By Prachi Sharma,Updated: 09 Jun, 2024 09:46 AM

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मन अपनी चंचलता तथा अस्थिरता के कारण जहां कहीं भी विचरण करता हो, मनुष्य को चाहिए कि उसे वहां से खींचे और अपने वश में लाए।

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यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्। 
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥6.26॥

PunjabKesari Swami Prabhupada

अनुवाद : मन अपनी चंचलता तथा अस्थिरता के कारण जहां कहीं भी विचरण करता हो, मनुष्य को चाहिए कि उसे वहां से खींचे और अपने वश में लाए।

तात्पर्य : मन स्वभाव से चंचल और अस्थिर है किन्तु स्वरूपसिद्ध योगी को मन को वश में लाना होता है। उस पर मन का अधिकार नहीं होना चाहिए। जो मन को (तथा इंद्रियों को भी) वश में रखता है, वह गोस्वामी या स्वामी कहलाता है और जो मन के वशीभूत होता है, वह गोदास अर्थात इंद्रियों का सेवक कहलाता है।

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गोस्वामी इंद्रियसुख के मानक से भिज्ञ होता है। दिव्य इंद्रियसुख वह है, जिसमें इंद्रियां हृषीकेश अर्थात इंद्रियों के स्वामी भगवान कृष्ण की सेवा में लगी रहती हैं। शुद्ध इंद्रियों के द्वारा कृष्ण की सेवा ही कृष्णचेतना या कृष्णभावनामृत कहलाती है। इंद्रियों को पूर्णवश में लाने की यही विधि है। इससे भी बढ़ कर बात यह है कि यह योगाभ्यास की परम सिद्धि भी है। 

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