Edited By Prachi Sharma,Updated: 13 Jul, 2024 10:59 AM
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जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मुझमें देखता है, उसके लिए न तो मैं कभी अदृश्य होता हूं और न वह मेरे लिए अदृश्य होता है।कृष्णचेतनामय व्यक्ति
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यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥6.30॥
अनुवाद एवं तात्पर्य : जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब कुछ मुझमें देखता है, उसके लिए न तो मैं कभी अदृश्य होता हूं और न वह मेरे लिए अदृश्य होता है।कृष्णचेतनामय व्यक्ति भगवान कृष्ण को सर्वत्र देखता है और सारी वस्तुओं को कृष्ण में देखता है। ऐसा व्यक्ति भले ही प्रकृति की पृथक-पृथक अभिव्यक्तियों को देखता प्रतीत हो, किन्तु वह प्रत्येक दशा में इस कृष्णभावनामृत से अवगत रहता है कि प्रत्येक वस्तु कृष्ण की ही शक्ति की अभिव्यक्ति है।
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कृष्णभावनामृत का मूल सिद्धांत ही यह है कि कृष्ण के बिना कोई अस्तित्व नहीं है और कृष्ण ही सर्वेश्वर हैं। कृष्णभावनामृत कृष्ण प्रेम का विकास है- ऐसी स्थिति, जो भौतिक मोक्ष से भी परे है। कृष्णभावनामृत की इस अवस्था में आत्म-साक्षात्कार से परे भक्त कृष्ण से इस अर्थ में एकरूप हो जाता है कि उसके लिए कृष्ण ही सब कुछ हो जाते हैं और भक्त प्रेममय कृष्ण से पूरित हो उठता है। तब भगवान तथा भक्त के बीच अंतरंग संबंध स्थापित हो जाता है। उस अवस्था में जीव को विनष्ट नहीं किया जा सकता और न भगवान भक्त की दृष्टि से ओझल होते हैं।
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