Edited By Prachi Sharma,Updated: 25 Jul, 2024 03:13 PM
जो योगी मुझे तथा परमात्मा को अभिन्न जानते हुए परमात्मा की भक्तिपूर्वक सेवा करता है, वह हर प्रकार से मुझमें सदैव स्थित रहता है।
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सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थित:।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते॥6.31॥
अनुवाद एवं तात्पर्य: जो योगी मुझे तथा परमात्मा को अभिन्न जानते हुए परमात्मा की भक्तिपूर्वक सेवा करता है, वह हर प्रकार से मुझमें सदैव स्थित रहता है।
जो योगी परमात्मा का ध्यान करता है वह अपने अंत:करण में कृष्ण के पूर्णरूप में शंख, चक्र, गदा तथा कमलपुष्प धारण किए चतुर्भुज विष्णु का दर्शन करता है। योगी को यह जानना चाहिए कि विष्णु कृष्ण से भिन्न नहीं हैं। परमात्मा रूप में कृष्ण जन-जन के हृदय में स्थित हैं।
यही नहीं, असंख्य जीवों के हृदयों में स्थित असंख्य परमात्माओं में कोई अंतर नहीं है। न ही कृष्ण की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरंतर व्यस्त व्यक्ति तथा परमात्मा के ध्यान में निरत एक पूर्णयोगी के बीच कोई अंतर है।
कृष्णभावनामृत में योगी सदैव कृष्ण में ही स्थित रहता है, भले ही भौतिक जगत में वह विभिन्न कार्यों में व्यस्त क्यों न हो। इसकी पुष्टि शील रूप गोस्वामी कृत भक्तिरसामृत सिंधु में (1.2.187) हुई है- निखिलास्वप्यवस्थासु जीवन्मुक्त: स उच्यते। कृष्णभावनामृत में रत रहने वाला भगवद्भक्त स्वत: मुक्त हो जाता है।
योगा यास में समाधि की सर्वोच्च अवस्था कृष्णभावनामृत है। केवल इस ज्ञान से कि कृष्ण प्रत्येक जन के हृदय में परमात्मा रूप में उपस्थित हैं, योगी निर्दोष हो जाता है।