Edited By Prachi Sharma,Updated: 04 Aug, 2024 08:12 AM
अर्जुन ने कहा, हे मधुसूदन! आपने जिस योगपद्धति का संक्षेप में वर्णन किया है, वह मेरे लिए अव्यावहारिक तथा असहनीय है क्योंकि मन चंचल तथा अस्थिर है।
शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः: साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्॥6.33॥
अनुवाद एवं तात्पर्य : अर्जुन ने कहा, हे मधुसूदन! आपने जिस योगपद्धति का संक्षेप में वर्णन किया है, वह मेरे लिए अव्यावहारिक तथा असहनीय है क्योंकि मन चंचल तथा अस्थिर है।
भगवान कृष्ण ने अर्जुन के लिए शुचौ देशे से लेकर योगी परमो मत: तक जिस योगपद्धति का वर्णन किया है, उसे अर्जुन अपनी असमर्थता के कारण अस्वीकार कर रहा है। इस कलियुग में सामान्य व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह अपना घर छोड़कर किसी पर्वत या जंगल के एकांत स्थान में जाकर योगाभ्यास करे।
आधुनिक युग की विशेषता है अल्पकालिक जीवन के लिए घोर संघर्ष। लोग सरल, व्यावहारिक साधनों से भी आत्म साक्षात्कार के लिए चिन्तित नहीं हैं, तो फिर इस कठिन योगपद्धति के विषय में क्या कहा जा सकता है, जो जीवन शैली, आसन विधि, स्थान के चयन तथा भौतिक व्यस्तताओं से विरक्ति का नियमन करती है।
व्यावहारिक व्यक्ति के रूप में अर्जुन ने सोचा कि इस योगपद्धति का पालन असंभव है, भले ही वह कई बातों में इस पद्धति पर पूरा उतरता था। वह राजवंशी था और उसमें अनेक सद्गुण थे। वह महान योद्धा था, वह दीर्घायु था और सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह भगवन श्री कृष्ण का घनिष्ठ मित्र था। पांच हजार वर्ष पूर्व अर्जुन को हमसे अधिक सुविधाएं प्राप्त थीं, तो भी उसने इस योगपद्धति को स्वीकार करने से मना कर दिया। वास्तव में इतिहास में कोई ऐसा प्रलेख प्राप्त नहीं है, जिससे यह ज्ञात हो सके कि उसने कभी योगाभ्यास किया हो। अत: इस पद्धति को इस कलियुग के लिए सर्वथा दुष्कर समझना चाहिए।