स्वामी प्रभुपाद: सुख और दुख में समानता

Edited By Prachi Sharma,Updated: 10 Aug, 2024 09:36 AM

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हे अर्जुन, वह पूर्णयोगी है जो अपनी तुलना से समस्त प्राणियों की उनके सुखों तथा दुखों में वास्तविक समानता का दर्शन करता है। कृष्णभावनाभाति व्यक्ति पूर्ण योगी होता

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आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत:॥6.32॥

भावार्थ: हे अर्जुन, वह पूर्णयोगी है जो अपनी तुलना से समस्त प्राणियों की उनके सुखों तथा दुखों में वास्तविक समानता का दर्शन करता है। कृष्णभावनाभाति व्यक्ति पूर्ण योगी होता है। वह अपने व्यक्तिगत अनुभव से प्रत्येक प्राणी के सुख तथा दुख से अवगत होता है। जीव के दुख का कारण ईश्वर से अपने संबंध का विस्मरण होना है। सुख का कारण कृष्ण को मनुष्यों के समस्त कार्यों का परम भोक्ता, समस्त देशों तथा लोकों का स्वामी एवं समस्त जीवों का परम हितैषी मित्र समझना है।

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पूर्ण योगी यह जानता है कि भौतिक प्रकृति के गुणों से प्रभावित बुद्धजीव कृष्ण अपने संबंध को भूल जाने के कारण तीन प्रकार के भौतिक तापों (दुखों) को भोगता है और चूंकि कृष्णभावनाभवित व्यक्ति सुखी होता है, इसलिए वह कृष्णज्ञान को सर्वत्र वितरित कर देना चाहता है।

अत: वह विश्व का सर्वश्रेष्ठ उपकारी एवं भगवान का प्रियतम सेवक है। भगवद्भक्त सदैव जीवों के कल्याण को देखता है और इस तरह वह प्रत्येक प्राणी का सखा होता है। वह सर्वश्रेष्ठ योगी है क्योंकि वह स्वान्त:सुखाय सिद्धि नहीं चाहता, अपितु अन्यों के लिए भी चाहता है।

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वह अपने मित्र जीवों से द्वेष नहीं करता। यही है वह अंतर जो एक भगवद्भक्त तथा आत्मोन्नति में ही रुचि रखने वाले योगी में होता है। जो योगी पूर्ण रूप से ध्यान धरने के लिए एकांत स्थान में चला जाता है, वह उतना पूर्ण नहीं होता जितना कि वह भक्त, जो प्रत्येक व्यक्ति को कृष्णभावनाभक्ति करने का प्रयास करता रहता है।

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