Edited By Prachi Sharma,Updated: 18 Aug, 2024 09:00 AM
अनुवाद : भगवान श्री कृष्ण ने कहा : हे महाबाहु कुंतीपुत्र ! नि:संदेह चंचल मन को वश में करना अत्यंत कठिन है, किन्तु उपयुक्त अभ्यास तथा विरक्ति
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असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।6.35।।
अनुवाद : भगवान श्री कृष्ण ने कहा : हे महाबाहु कुंतीपुत्र ! नि:संदेह चंचल मन को वश में करना अत्यंत कठिन है, किन्तु उपयुक्त अभ्यास तथा विरक्ति द्वारा ऐसा संभव है।
तात्पर्य : अर्जुन द्वारा व्यक्त इस हठीले मन को वश में करने की कठिनाई को भगवान स्वीकार करते हैं किन्तु साथ ही सुझाते हैं कि अभ्यास तथा वैराग्य द्वारा यह संभव है।
यह अभ्यास क्या है ? वर्तमान युग में तीर्थवास, परमात्मा का ध्यान, मन तथा इंद्रियों का निग्रह, ब्रह्मचर्यपालन, एकांत वास आदि कठोर विधि-विधानों का पालन कर पाना संभव नहीं है, किन्तु कृष्ण भावनामृत के अभ्यास से मनुष्य को भगवान की नवधाभक्ति प्राप्त हो सकती है।
ऐसी भक्ति का प्रथम अंग है कृष्ण के विषय में श्रवण करना। मन को समस्त प्रकार की दुश्चिन्ताओं से शुद्ध करने के लिए यह परम शक्तिशाली एवं दिव्य विधि है।
कृष्ण के विषय में जितना ही अधिक श्रवण किया जाता है उतना ही मनुष्य उन वस्तुओं के प्रति अनासक्त होता है जो मन को कृष्ण से दूर ले जाने वाली हैं। मन को उन सारे कार्यों से विरक्त कर लेने पर, जिनसे कृष्ण का कोई संबंध नहीं है, मनुष्य सुगमतापूर्वक वैराग्य सीख सकता है।
यह वैसे ही है जिस तरह भोजन के प्रत्येक कौर से भूखे को तुष्टि प्राप्त होती है। भूख लगने पर जितना अधिक मनुष्य खाता जाता है उतनी ही अधिक तुष्टि और शक्ति उसे मिलती जाती है। इसी प्रकार भक्ति सम्पन्न करने से दिव्य तुष्टि की अनुभूति होती है क्योंकि मन भौतिक वस्तुओं से विरक्त हो जाता है। अत: भगवान कृष्ण के कार्यकलापों का श्रवण उन्मत्त मन का कुशल उपचार है और कृष्ण को अर्पित भोजन ग्रहण करना रोगी के लिए उपयुक्त पथ्य। यह उपचार ही कृष्णभावनामृत की विधि है।