Edited By Prachi Sharma,Updated: 08 Sep, 2024 07:00 AM
जिसका मन उच्छृंखल है उसके लिए आत्म साक्षात्कार कठिन कार्य होता है किन्तु जिसका मन संयमित है और जो समुचित उपाय करता है, उसकी
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संयमित मन’ वालों की ‘सफलता’ तय है
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति में मति:।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायत:।। 6.36।।
अनुवाद एवं तात्पर्य : जिसका मन उच्छृंखल है उसके लिए आत्म साक्षात्कार कठिन कार्य होता है किन्तु जिसका मन संयमित है और जो समुचित उपाय करता है, उसकी सफलता ध्रुव है। ऐसा मेरा मत है।
भगवान घोषणा करते हैं कि जो व्यक्ति अपने मन को भौतिक व्यापारों से विलग करने का समुचित उपचार नहीं करता, उसे आत्म साक्षात्कार में शायद ही सफलता प्राप्त हो सके। भौतिक भोग में मन लगाकर योग का अभ्यास करना मानो अग्नि में जल डाल कर इसे प्रज्वलित करने का प्रयास करना हो।
मन का निग्रह किए बिना योगाभ्यास समय का अपव्यय है। योग का ऐसा प्रदर्शन भले ही भौतिक दृष्टि से लाभप्रद हो, किन्तु जहां तक आत्म साक्षात्कार का प्रश्न है, यह सब व्यर्थ है।
अत: मनुष्य को चाहिए कि भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरंतर मन को लगाकर उसे वश में करे। कृष्ण भावनामृत में प्रवृत्त हुए बिना मन को स्थिर कर पाना असंभव है। कृष्ण भावनाभावित व्यक्ति बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के ही योगाभ्यास का फल सरलता से प्राप्त कर लेता है किन्तु योगाभ्यास करने वाले को कृष्ण भावनाभावित हुए बिना सफलता नहीं मिल पाती।