Edited By Prachi Sharma,Updated: 22 Sep, 2024 10:45 AM
असफल योगी पवित्रात्माओं के लोकों में अनेकानेक वर्षों तक भोग करने के बाद या तो सदाचारी पुरुषों के परिवार में या फिर धनवानों के कुल में जन्म लेता है।
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प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वती: समा:।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते॥6.41॥
अनुवाद : असफल योगी पवित्रात्माओं के लोकों में अनेकानेक वर्षों तक भोग करने के बाद या तो सदाचारी पुरुषों के परिवार में या फिर धनवानों के कुल में जन्म लेता है।
तात्पर्य : असफल योगियों की दो श्रेणियां हैं-एक वे जो बहुत थोड़ी उन्नति के बाद ही भ्रष्ट होते हैं, दूसरे वे जो दीर्घकाल तक योगाभ्यास के बाद भ्रष्ट होते हैं। जो योगी अल्पकालिक अभ्यास के बाद भ्रष्ट होता है वह स्वर्गलोक को जाता है, जहां केवल पुण्यात्माओं को प्रविष्ट होने दिया जाता है। वहां पर दीर्घकाल तक रहने के बाद उसे पुन: इस लोक में भेजा जाता है जिससे वह किसी सदाचारी ब्राह्मण वैष्णव के कुल में या धनवान वणिक के कुल में जन्म ले सके।
योगाभ्यास का वास्तविक उद्देश्य कृष्णभावनामृत की सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त करना है, जैसा कि इस अध्याय के अंतिम श्लोक में बताया गया है, किन्तु जो इतने अध्यववासी नहीं होते और जो भौतिक प्रलोभनों के कारण असफल हो जाते हैं, उन्हें अपनी भौतिक इच्छाओं की पूॢत करने की अनुमति दी जाती है। तत्पश्चात उन्हें सदाचारी या धनवान परिवारों में सम्पन्न जीवन बिताने का अवसर प्रदान किया जाता है। ऐसे परिवारों में जन्म लेने वाले इन सुविधाओं का लाभ उठाते हुए अपने आपको पूर्ण कृष्णभावनामृत तक ऊपर ले जाते हैं।