स्वामी प्रभुपाद: जिज्ञासु योगी शास्त्रों से अनुष्ठानों से परे स्थित होता है

Edited By Prachi Sharma,Updated: 27 Oct, 2024 06:00 AM

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अनुवाद एवं तात्पर्य : अपने पूर्वजन्म की दैवी चेतना से वह न चाहते हुए भी स्वत: योग के नियमों की ओर आकॢषत होता है। ऐसा जिज्ञासु योगी शास्त्रों से अनुष्ठानों से परे स्थित होता है।

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पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि स:।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते॥6.44॥

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अनुवाद एवं तात्पर्य : अपने पूर्वजन्म की दैवी चेतना से वह न चाहते हुए भी स्वत: योग के नियमों की ओर आकॢषत होता है। ऐसा जिज्ञासु योगी शास्त्रों से अनुष्ठानों से परे स्थित होता है। उन्नत योगीजन शास्त्रों के अनुष्ठानों के प्रति अधिक आकृष्ट नहीं होते, किन्तु योग नियमों के प्रति स्वत: आकृष्ट होते हैं, जिनके द्वारा वे कृष्णभावनामृत में आरूढ़ हो सकते हैं। श्रीमद्भावगत में (3.33.7) उन्नत योगियों द्वारा वैदिक अनुष्ठानों के प्रति अवहेलना की व्याख्या इस प्रकार की गई है :

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हे भगवान! जो लोग आपके पवित्र नाम का जप करते हैं, वे चांडालों के परिवारों में जन्म लेकर भी आध्यात्मिक जीवन में अत्यधिक प्रगत होते हैं। वे नि:संदेह सभी प्रकार के तप और यज्ञ, तीर्थस्थानों में स्नान और समस्त शास्त्रों का अध्ययन कर चुके होते हैं।

इसका सुप्रसिद्ध उदाहरण भगवान चैतन्य ने प्रस्तुत किया, जिन्होंने ठाकुर हरिदास को अपने परमप्रिय शिष्य के रूप में स्वीकार किया। यद्यपि हरिदास का जन्म एक मुसलमान परिवार में हुआ था, किन्तु भगवान चैतन्य ने उन्हें नामाचार्य की पदवी प्रदान की क्योंकि वे प्रतिदिन नियमपूर्वक भगवान के तीन लाख पवित्र नामों का जप करते थे, अत: यह समझा जाता है कि पूर्व जन्म में उन्होंने शब्द ब्रह्म नामक वेदवॢणत कर्मकांडों को पूरा किया होगा। 

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