Edited By Prachi Sharma,Updated: 22 Dec, 2024 06:00 AM
अनुवाद एवं तात्पर्य: कई हजार मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्नशील होता है और इस तरह सिद्धि प्राप्त करने वालों में से विरला ही कोई एक मुझे वास्तव में जान पाता है।
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मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः:॥7.3॥
अनुवाद एवं तात्पर्य: कई हजार मनुष्यों में से कोई एक सिद्धि के लिए प्रयत्नशील होता है और इस तरह सिद्धि प्राप्त करने वालों में से विरला ही कोई एक मुझे वास्तव में जान पाता है।
मनुष्यों की विभिन्न कोटियां हैं और हजारों मनुष्यों में से विरला मनुष्य यह जानने में रुचि रखता है कि आत्मा क्या है, शरीर क्या है और परमसत्य क्या है। सामान्यत: मानव आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन जैसी पशुवृत्तियों में लगा रहता है और मुश्किल से कोई एक दिव्य ज्ञान में रुचि रखता है।
गीता के प्रथम छह अध्याय उन लोगों के लिए हैं जिनकी रुचि दिव्यज्ञान में, आत्मा, परमात्मा तथा ज्ञानयोग, ध्यानयोग द्वारा अनुभूति की क्रिया में तथा पदार्थ से आत्मा के पार्थक्य को जानने में है, किन्तु कृष्ण तो केवल उन्हीं व्यक्तियों द्वारा ज्ञेय है जो कृष्णभावनाभावित हैं। अन्य योगी निॢवशेष ब्रह्म अनुभूति प्राप्त कर सकते हैं क्योंकि कृष्ण को जानने की अपेक्षा यह सुगम है। कृष्ण परम पुरुष हैं किन्तु साथ ही वे ब्रह्म तथा परमात्मा ज्ञान से परे हैं। योगी तथा ज्ञानीजन कृष्ण को नहीं समझ पाते।
अभक्तों के लिए उन्हें जान पाना अत्यंत कठिन है। यद्यपि अभक्तगण यह घोषित करते हैं कि भक्ति का मार्ग सुमग है किन्तु वे इस पर चलते नहीं।
वास्तव में भक्तिमार्ग सुगम नहीं है। भक्ति के ज्ञान से हीन अनधिकारी लोगों द्वारा ग्रहण किया जाने वाला तथाकथित भक्तिमार्ग भले ही सुगम हो, किन्तु जब विधि-विधानों के अनुसार दृढ़तापूर्वक इसका अभ्यास किया जाता है तो मीमांसक तथा दार्शनिक इस मार्ग से च्युत हो जाते हैं।