Edited By Prachi Sharma,Updated: 29 Dec, 2024 08:13 AM
हे धनंजय ! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है। जिस प्रकार मोती धागे में गुंथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर आश्रित है। परमसत्य साकार है या निराकार, इस पर सामान्य विवाद चलता है। जहां तक
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मत्तः: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय मयि
सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥7.7॥
अनुवाद एवं तात्पर्य: हे धनंजय ! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है। जिस प्रकार मोती धागे में गुंथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर आश्रित है। परमसत्य साकार है या निराकार, इस पर सामान्य विवाद चलता है। जहां तक भगवद्गीता का प्रश्न है, परमसत्य तो श्री भगवान श्रीकृष्ण हैं और इसकी पुष्टि पद-पद पर होती है। इस श्लोक में विशेष रूप से बल है कि परमसत्य पुरुष रूप है। इस बात की कि भगवान ही परमसत्य हैं, ब्रह्म संहिता में भी पुष्टि हुई है-ईश्वर: परम: कष्ण: सच्चिदानंद विग्रह: परमसत्य श्री भगवान कृष्ण ही हैं, जो आदि भगवान हैं। सत्य आनंद के सागर गोविंद हैं और सच्चिदानंद स्वरूप हैं
ये सब प्रमाण निर्विवाद रूप से प्रमाणित करते हैं कि परम सत्य परम पुरुष है जो समस्त कारणों का कारण है। फिर भी निरीश्वरवादी श्वेताश्वतर उपनिदष में (3.10) उपलब्ध वैदिक मंत्र के आधार पर तर्क करते हैं-ततो यदुत्तरतरं तदरुपमामयं। य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरे दुखमेवापियन्ति: ‘‘भौतिक जगत में ब्रह्मांड के आदि जीव ब्रह्मा को देवताओं, मनुष्यों तथा निम्न प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है किन्तु ब्रह्मा के परे एक इंद्रियातीत ब्रह्म है, जिसका कोई भौतिक स्वरूप नहीं होता और जो समस्त भौतिक कल्मष से रहित होता है। जो व्यक्ति उसे जान लेता है वह भी दिव्य बन जाता है, किन्तु जो उसे नहीं जान पाते, वे सांसारिक दुखों को भोगते रहते हैं।’’
निर्वेष्वादी अरूपम शब्द पर विशेष बल देते हैं, किन्तु यह अरूपम शब्द निराकार नहीं है। यह दिव्य सच्चिदानंद स्वरूप का सूचक है।