स्वामी प्रभुपाद: परमेश्वर को अनुभव करने की विधि

Edited By Prachi Sharma,Updated: 05 Jan, 2025 08:19 AM

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अनुवाद एवं तात्पर्य : हे कुंतीपुत्र ! मैं जल का स्वाद हूं, सूर्य तथा चंद्रमा का प्रकाश हूं, वैदिक मंत्रों में ओंकार हंूं, मैं आकाश में ध्वनि तथा मनुष्य में सामथ्र्य हूं।

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रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो:।
प्रणव: सर्ववेदेषु शब्द: खे पौरुषं नृषु॥7.8॥

अनुवाद एवं तात्पर्य : हे कुंतीपुत्र ! मैं जल का स्वाद हूं, सूर्य तथा चंद्रमा का प्रकाश हूं, वैदिक मंत्रों में ओंकार हं, मैं आकाश में ध्वनि तथा मनुष्य में सामथ्र्य हूं। यह श्लोक बताता है कि भगवान किस प्रकार अपनी विविध परा तथा अपरा शक्तियों द्वारा सर्वव्यापी हैं। परमेश्वर की प्रारंभिक अनुभूति उनकी विभिन्न शक्तियों द्वारा हो सकती है और इस प्रकार उनका निराकार रूप में अनुभव होता है।

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जिस प्रकार सूर्य देवता एक पुरुष हैं और अपनी सर्वत्रव्यापी शक्ति सूर्य प्रकाश द्वारा अनुभव किए जाते हैं, उसी प्रकार भगवान अपने धाम में रहते हुए भी अपनी सर्वव्यापी शक्तियों द्वारा अनुभव किए जाते हैं। जल का स्वाद जल का मूलभूत गुण है। कोई भी समुद्र का जल नहीं पीना चाहता क्योंकि इसमें शुद्ध जल के स्वाद के साथ-साथ नमक मिला रहता है। जल के प्रति आकर्षण का कारण स्वाद की शुद्धि है और यह शुद्ध स्वाद भगवान की शक्तियों में से एक है।

निर्वेष्वादी जल में भगवान की उपस्थिति जल के स्वाद के कारण अनुभव करता है और सगुणवादी भगवान का गुणगान करता है क्योंकि वह प्यास बुझाने के लिए सुस्वादु जल प्रदान करता है। परमेश्वर को अनुभव करने की यही विधि है।

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व्यवहारत: सगुणवाद और निॢवशेषवाद में कोई मतभेद नहीं है। जो ईश्वर को जानता है वह यह भी जानता है कि प्रत्येक वस्तु में एक साथ सुगणबोध तथा निर्गुणबोध निहित होता है और इसमें कोई विरोध नहीं है। अत: भगवान चैतन्य ने अपना शुद्ध सिद्धांत प्रतिपादित किया जो अचित्यभेद और अभेद तत्व कहलाता है।

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