Edited By Prachi Sharma,Updated: 12 Feb, 2025 09:27 AM
योगी पुरुष तपस्वी से, ज्ञानी से तथा सकाम कर्मी से बढ़ कर होता है। अत: हे अर्जुन! सभी प्रकार से तुम योगी बनो। जब हम योग का नाम लेते हैं तो हम अपनी चेतना को परमसत्य के साथ जोड़ने की बात करते हैं।
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तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः:।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥6.46॥
अनुवाद एवं तात्पर्य : योगी पुरुष तपस्वी से, ज्ञानी से तथा सकाम कर्मी से बढ़ कर होता है। अत: हे अर्जुन! सभी प्रकार से तुम योगी बनो। जब हम योग का नाम लेते हैं तो हम अपनी चेतना को परमसत्य के साथ जोड़ने की बात करते हैं। विविध अभ्यासकत्र्ता इस पद्धति को ग्रहण की गई विशेष विधि के अनुसार विभिन्न नामों से पुकारते हैं।
जब यह योगपद्धति सकाम कर्मों से मुख्यत: संबंधित होती है, तो कर्मयोग कहलाती है। जब यह चिंतन से संबंधित होती है, तो ज्ञानयोग कहलाती है और जब यह भगवान की भक्ति से संबंधित होती है, तो भक्ति योग कहलाती है।
भक्तियोग या कृष्णभावनामृत समस्त योगों की परमसिद्धि है, जैसा कि अगले श्लोक में बताया जाएगा। भगवान ने यहां पर योग की श्रेष्ठता की पुष्टि की है, किन्तु उन्होंने इसका उल्लेख नहीं किया कि यह भक्तियोग से श्रेष्ठ है। भक्तियोग पूर्ण आत्मज्ञान है, अत: इससे बढ़ कर कुछ भी नहीं है।
आत्मज्ञान के बिना तपस्या अपूर्ण है, अत: इससे बढ़ कर कुछ भी नहीं है। आत्मज्ञान के बिना तपस्या अपूर्ण है। परमेश्वर के प्रति समर्पित हुए बिना ज्ञानयोग भी अपूर्ण है। अत: यहां पर योग का सर्वाधिक प्रशंसित रूप भक्तियोग है और इसकी अधिक व्याख्या अगले श्लोक में की गई है।