Edited By Prachi Sharma,Updated: 16 Feb, 2025 09:27 AM
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हे भरतश्रेष्ठ। चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते हैं- आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी।
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चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः: सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ॥7.16॥
अनुवाद एवं तात्पर्य : हे भरतश्रेष्ठ। चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते हैं- आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी।
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दुष्कृती के सर्वथा विपरीत ऐसे लोग हैं जो शास्त्रीय विधि-विधानों का दृढ़ता से पालन करते हैं। ये सुकृतिन: कहलाते हैं, अर्थात वे जो शास्त्रीय विधि-विधानों, नैतिक और सामाजिक नियमों को मानते हैं और परमेश्वर के प्रति न्यूनाधिक भक्ति करते हैं।
इन लोगों की चार श्रेणियां हैं वे जो पीड़ित हैं, वे जिन्हें धन की आवश्यकता है, वे जिन्हें जिज्ञासा हैं और वे जिन्हें परमसत्य का ज्ञान है। ये शुद्ध भक्त नहीं हैं क्योंकि ये भक्ति के बदले कुछ महत्वाकांक्षाओं की पूॢत करना चाहते हैं। शुद्ध भक्ति निष्काम होती है और उसमें किसी लाभ की आकांक्षा नहीं रहती।
जब ये चार प्रकार के लोग परमेश्वर के पास भक्ति के लिए आते हैं और शुद्ध भक्त की संगति से पूर्णतया शुद्ध हो जाते हैं तो वे भी शुद्ध भक्त हो जाते हैं। जहां तक दुष्टों (दुष्कृतियों) का प्रश्न है, उनके लिए भक्ति दुर्गम है क्योंकि उनका जीवन स्वार्थपूर्ण अनियमित तथा निरुद्देश्य होता है किन्तु इनमें से भी कुछ लोग शुद्ध भक्त के संपर्क में आने पर शुद्ध भक्त बन जाते हैं।
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जो लोग सदैव सकाम कर्मों में व्यस्त रहते हैं, वे संकट के समय भगवान के पास आते हैं और तब वे शुद्धभक्तों की संगति करते हैं तथा विपत्ति में भगवान के भक्त बन जाते हैं, जो बिल्कुल हताश हैं वे भी कभी-कभी शुद्ध भक्तों की संगति करने आते हैं और ईश्वर के विषय में जानने की जिज्ञासा करते हैं। इस प्रकार ये निराकार ब्रह्मा के ज्ञान को पार कर जाते हैं और भगवान कृपा से या उनके शुद्ध भक्त की कृपा से उन्हें भगवान का बोध हो जाता है।
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