Edited By Niyati Bhandari,Updated: 08 Apr, 2022 10:36 AM
‘‘भारत भूमि मेरा शरीर है, कन्याकुमारी मेरे पैर हैं और हिमालय मेरा सिर’’ यह कथन था स्वामी तीर्थ जी का। गुजरांवाला जिला (अब पाकिस्तान) में 22 अक्तूबर, 1873 को
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Swami Ram Tirth Story: ‘‘भारत भूमि मेरा शरीर है, कन्याकुमारी मेरे पैर हैं और हिमालय मेरा सिर’’ यह कथन था स्वामी तीर्थ जी का। गुजरांवाला जिला (अब पाकिस्तान) में 22 अक्तूबर, 1873 को दीपावली के दिन मुरारीवाला ग्राम में पंडित हीरानंद गोस्वामी के एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण परिवार में इनका जन्म हुआ।
निर्धन छात्रों पर खर्च करते थे वेतन
पिता ने बाल्यावस्था में ही इनका विवाह भी कर दिया था। छात्र जीवन में इन्होंने अनेक कष्टों का सामना किया। भूख और आर्थिक तंगी के बाद भी 1891 में पंजाब विश्वविद्यालय की बी.ए. की परीक्षा में प्रांत भर में प्रथम स्थान प्राप्त किया। प्रथम आने पर इन्हें छात्रवृत्ति भी मिली थी। अपने प्रिय विषय गणित में एम.ए. उत्तीर्ण कर गणित के प्रोफैसर नियुक्त हो गए। वह अपने वेतन का बड़ा हिस्सा निर्धन छात्रों के अध्ययन के लिए दे देते थे।
दो महात्माओं के प्रभाव ने हमेशा के लिए बदला इनका जीवन
लाहौर में इन्हें स्वामी विवेकानंद जी के प्रवचन सुनने तथा उनका सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर मिला। उस समय वह पंजाब की सनातन धर्म सभा से जुड़े हुए थे। इन्होंने अद्वैत वेदांत का अध्ययन और मनन प्रारंभ किया तथा अद्वैत निष्ठा बलवती होते हुए भी उर्दू में एक मासिक पत्र ‘अलिफ’ निकाला।
इसी बीच उन पर दो महात्माओं का विशेष प्रभाव पड़ा। द्वारका पीठ के तत्कालीन शंकराचार्य और स्वामी विवेकानंद। प्रो. तीर्थ राम ने 1901 में लाहौर से अंतिम विदा लेकर परिवार सहित हिमालय की ओर प्रस्थान किया। अलकनंदा व भागीरथी के पवित्र संगम पर पहुंच कर कोटी ग्राम में शाल्मली वृक्ष के नीचे ठहर गए।
हिमालय में खत्म हुआ संशय
यहां इन्हें आत्म साक्षात्कार हुआ और इनके मन के सभी भ्रम एवं संशय मिट गए। उन्होंने स्वयं को ईश्वरीय कार्य के लिए समर्पित कर दिया। प्रो. तीर्थ राम से तीर्थ राम हो गए। उन्होंने द्वारिका पीठ के शंकराचार्य के निर्देशानुसार केशों का त्याग कर संन्यास ले लिया तथा अपनी पत्नी एवं साथियों को वहां से वापस भेज दिया।
विदेशों में भारतीय संस्कृति का प्रचार
टिहरी नरेश र्कीत शाह घोर अनीश्वरवादी थे। रामतीर्थ के संपर्क में आकर वह भी पूर्ण आस्तिक हो गए। उन्होंने स्वामी रामतीर्थ के जापान में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन में जाने की व्यवस्था की जहां से वह अमरीका तथा मिस्र भी गए।
अपनी विदेश यात्रा में उन्होंने भारतीय संस्कृति का उद्घोष किया तथा वहां से लौट कर भारत में अनेक स्थानों पर प्रवचन दिए। जापान में एक माह तथा अमरीका में 2 माह रहे।
इनका कहना था,‘‘शाश्वत शांति का एक मात्र उपाय है आत्मज्ञान। अपने आपको पहचानो। तुम स्वयं ईश्वर हो।’’
स्वामी रामतीर्थ ने बांहें फैलाकर कहा, ‘‘भारत में जितनी सभा-समाजें हैं, सब राम की अपनी हैं। राम मैतक्य के लिए हैं, मतभेद के लिए नहीं। देश को इस समय आवश्यकता है एकता और संगठन की। राष्ट्र धर्म और विज्ञान साधना की, संयम और ब्रह्मचर्य की।’’
टिहरी बनी मोक्ष स्थली
टिहरी जो उनकी आध्यात्मिक प्रेरणा स्थली थी, वही उनकी मोक्ष स्थली बनी। 1906 की दीपावली के दिन उन्होंने मृत्यु के नाम एक संदेश लिख कर गंगा में जल समाधि ले ली।
उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि 20वीं शताब्दी के अर्धभाग के पूर्व ही भारत स्वतंत्र होकर उज्ज्वल गौरव को प्राप्त करेगा।