Edited By Niyati Bhandari,Updated: 23 Dec, 2023 07:35 AM
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कम ही लोग जानते हैं कि समाज को जागरूक करने के साथ-साथ देश की आजादी के लिए अलख जगाने में भी संतों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। इन्हीं में से एक थे स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती, जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में
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Swami Shraddhanand Saraswati death anniversary: कम ही लोग जानते हैं कि समाज को जागरूक करने के साथ-साथ देश की आजादी के लिए अलख जगाने में भी संतों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। इन्हीं में से एक थे स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती, जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया तथा गरीबों और दीन-दुखियों के उद्धार के लिए काम किया व स्त्री-शिक्षा का प्रचार किया। 1919 में स्वामी जी ने दिल्ली में जामा मस्जिद क्षेत्र में आयोजित एक विशाल सभा में भारत की स्वाधीनता के लिए प्रत्येक नागरिक से पंथक मतभेद भुलाकर एकजुट होने का आह्वान किया था। स्वामी श्रद्धानन्द का जन्म 22 फरवरी, 1856 (फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी, विक्रम सम्वत् 1913) को पंजाब के जालन्धर जिले के तलवान ग्राम में एक खत्री परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री नानकचन्द विज ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा शासित यूनाइटेड प्रोविन्स (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में पुलिस अधिकारी थे। उनके बचपन का नाम बृहस्पति विज और मुंशीराम विज था, किन्तु मुंशीराम सरल होने के कारण अधिक प्रचलित हुआ। पिता का स्थानांतरण अलग-अलग स्थानों पर होने के कारण उनकी आरम्भिक शिक्षा अच्छी प्रकार नहीं हो सकी।
लाहौर और जालंधर उनके मुख्य कार्यस्थल रहे। एक बार आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती वैदिक धर्म के प्रचारार्थ बरेली पहुंचे। पिता इन्हें साथ लेकर स्वामी जी का प्रवचन सुनने पहुंचे। युवावस्था तक मुंशीराम ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे लेकिन स्वामी जी के तर्कों और आशीर्वाद ने मुंशीराम को दृढ़ ईश्वर विश्वासी तथा वैदिक धर्म का अनन्य भक्त बना दिया। सफल वकालत के साथ आर्य समाज जालंधर के जिला अध्यक्ष के पद से उनका सार्वजनिक जीवन प्रारम्भ हुआ।
महर्षि दयानन्द के महाप्रयाण के बाद उन्होंने स्वयं को स्व-देश, स्व-संस्कृति, स्व-समाज, स्व-भाषा, स्व-शिक्षा, नारी कल्याण, दलितोत्थान, स्वदेशी प्रचार, वेदोत्थान, पाखंड खंडन, अंधविश्वास-उन्मूलन और धर्मोत्थान के कार्यों को आगे बढ़ाने में पूर्णत: समर्पित कर दिया।
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अछूतोद्धार, धर्म प्रचार, सत्य धर्म के आधार पर साहित्य रचना, वेद पढ़ने व पढ़ाने की व्यवस्था करना, धर्म के पथ पर अडिग रहना, आर्य भाषा के प्रचार तथा उसे जीवीकोपार्जन की भाषा बनाने का सफल प्रयास, आर्य जाति की उन्नति के लिए हर प्रकार से प्रयास करना आदि ऐसे कार्य हैं, जिनके फलस्वरूप स्वामी श्रद्धानन्द अनन्त काल के लिए अमर हो गए।
इनका विवाह श्रीमती शिवा देवी के साथ हुआ था जो छोटी आयु में ही दो पुत्र और दो पुत्रियां छोड़ स्वर्ग सिधार गईं। 1901 में मुंशीराम ने अंग्रेजों द्वारा जारी शिक्षा पद्धति के स्थान पर वैदिक धर्म तथा भारतीयता की शिक्षा देने वाले संस्थान ‘गुरुकुल’ की स्थापना की। हरिद्वार के कांगड़ी गांव में गुरुकुल विद्यालय खोला गया। इस समय यह मानद विश्वविद्यालय है, जिसका नाम गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय है। 1917 में इन्होंने संन्यास धारण कर लिया और स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से विख्यात हुए।
उन्होंने पत्रकारिता में भी कदम रखा और उर्दू तथा हिन्दी में धार्मिक व सामाजिक विषयों पर लिखना शुरू किया। 1922 में अंग्रेज सरकार ने इन्हें गिरफ्तार किया। 23 दिसम्बर, 1926 को दिल्ली के नया बाजार स्थित उनके निवास स्थान पर अब्दुल रशीद नामक एक उन्मादी ने धर्म-चर्चा के बहाने उनके कक्ष में प्रवेश कर उन्हें गोली मार दी और यह महान विभूति सदा के लिए अमर हो गई।
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