Edited By Niyati Bhandari,Updated: 25 Nov, 2024 09:48 AM
एक बार स्वामी विवेकानंद जयपुर में 2 सप्ताह के लिए ठहरे थे। इस दौरान एक व्याकरण के विद्वान से उनकी भेंट हुई। परिचय होने के पश्चात स्वामी जी ने उनसे पाणिनि का अष्टाध्यायी व्याकरण पढ़ने की इच्छा जाहिर की। इस शास्त्र में विलक्षण ज्ञान होने पर भी पंडित...
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एक बार स्वामी विवेकानंद जयपुर में 2 सप्ताह के लिए ठहरे थे। इस दौरान एक व्याकरण के विद्वान से उनकी भेंट हुई। परिचय होने के पश्चात स्वामी जी ने उनसे पाणिनि का अष्टाध्यायी व्याकरण पढ़ने की इच्छा जाहिर की। इस शास्त्र में विलक्षण ज्ञान होने पर भी पंडित जी की अध्ययन प्रणाली सरल नहीं थी।
इसके बाद पंडित जी ने लगातार 3 दिनों तक पातंजल भाष्य सहित प्रथम सूत्र की व्याख्या की लेकिन उन्होंने पाया कि इसका अर्थ स्वामी जी को पूरी तरह से समझ में नहीं आया। चौथे दिन उन्होंने स्वामी जी से कहा, ‘‘मुझे लगता है कि जब तीन दिनों में मैं आपको प्रथम सूत्र का ही अर्थ नहीं समझा सका, तब मुझसे आपको कोई विशेष लाभ नहीं होगा।’’
पंडित जी की बात सुनकर स्वामी विवेकानंद जी ने दृढ़ संकल्प किया कि चाहे जैसे हो अपने ही प्रयास से वह उक्त भाष्य का अर्थ समझेंगे और जब तक ऐसा नहीं होता तब तक वे अन्य किसी ओर मन नहीं लगाएंगे। संकल्प कर एकांत स्थान में वह उसे पढ़ने बैठे। कुछ ही समय में स्वामी जी ने भाष्य को कंठस्थ कर लिया।
इसके बाद वह पंडित जी के समक्ष उपस्थित होकर उसकी व्याख्या करने लगे। उनकी तर्कपूर्ण व्याख्या सुनकर पंडित जी आश्चर्यचकित हो गए। इस घटना का उल्लेख करते हुए स्वामी जी ने बाद में कहा था कि मन में यदि प्रबल संकल्प हो तो कुछ भी असंभव नहीं है।