प्राचीनकाल से लगभग सभी राजा सामरिक दृष्टि से दुर्ग का निर्माण पहाड़ों पर करते रहे हैं। राजस्थान के दक्षिण-पूर्वी पठारी भाग में अरावली पहाड़ियों के दक्षिण-पूर्व स्थित एक पहाड़ी पर मजबूत प्राचीरों से घिरा चित्तौड़गढ़ का दुर्ग 7वीं शताब्दी में मौरी राजपूतों...
प्राचीनकाल से लगभग सभी राजा सामरिक दृष्टि से दुर्ग का निर्माण पहाड़ों पर करते रहे हैं। राजस्थान के दक्षिण-पूर्वी पठारी भाग में अरावली पहाड़ियों के दक्षिण-पूर्व स्थित एक पहाड़ी पर मजबूत प्राचीरों से घिरा चित्तौड़गढ़ का दुर्ग 7वीं शताब्दी में मौरी राजपूतों ने बनवाया था। 150 मीटर की ऊंचाई वाली इस पहाड़ी का आकार मछली के समान है। पहाड़ी के नीचे चारों ओर की भूमि समतल है। चित्तौड़गढ़ सिसौदिया राजपूतों की प्राचीन राजधानी रहा है और यह गढ़ उन्हीं के शौर्य का गौरवोन्नत साक्षी है। चित्तौड़ प्राचीनकाल से राजा-महाराजाओं, सम्राटों एवं शक्तिशाली योद्धाओं का निशाना रहा, जिसके कारण यहां का इतिहास बड़ा विचित्र एवं पेचीदा रहा है।
9वीं एवं 10वीं शताब्दी में यहां गुजरात के परिहारों के साथ ही मालवा के परिहारों का आधिपत्य रहा था। सन् 1133 में सोलंकी जयराज ने यशोवर्मन को हराकर यहां कब्जा किया। सन् 1150 में गुजरात के चालुक्य राजा कुमारपाल का आधिपत्य था। सन् 1185 में विग्रहराज चतुर्थ ने यहां शासन चलाया। सन् 1207 में पुनः चालुक्यों एवं गुहिलोत वंश का प्रभाव स्थापित हुआ। सन् 1213 से 1252 तक नागदा के पतन के बाद जेत्रसिंह ने इसे राजधानी बनाकर शासन चलाया। इस पराक्रमी राजा ने दिल्ली के घियासुद्दीन को पराजित किया था। सन् 1303 में अल्लाउद्दीन खिलजी ने यहां रावल रतनसिंह से युद्ध किया जो चित्तौड़ का प्रथम शाका कहलाया। अल्लाउद्दीन ने अपने पुत्र खिजर खां को राज्य दे दिया। खिजर खां ने वापसी पर चित्तौड़ का राज-काज कान्हादेव के भाई मालदेव को सौंप दिया।
मालदेव से बाप्पा रावल के वंशज हमीन ने पुनः अपने प्राचीन राज्य को हस्तगत किया। सन् 1365-1373 तक राणा क्षेत्रसिंह (खेता) और सन् 1373-1397 तक राणा लाखा (लक्ष्मणसिंह) ने हमीर के बाद शासन किया। इस प्रकार चित्तौड़ की भूमि पर लगातार युद्ध होते रहे और हमेशा राजा बदलते रहे।
सन् 1534 में चित्तौड़ का दूसरा शाका हुआ जब गुजरात के बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया। इसी प्रकार सन् 1567 में अकबर ने चितौड़ पर चढ़ाई की जिसे मेवाड़ का तीसरा शाका कहा जाता है। चित्तौड़ के इन शाकों में राजपूत योद्धाओं ने अपने शौर्य, कर्मठता और स्वातंत्र्य प्रेम का पूर्ण प्रदर्शन करते हुए अपने गौरव को अमर बनाए रखा था। इन शाकों में जहां हजारों योद्धाओं और वीरांगनाओं का बलिदान हुआ, वही भयंकर रूप से संस्कृति का विनाश भी हुआ।
इस प्रकार अपने लम्बे इतिहास में यह दुर्ग तीन बार आक्रांत हुआ- 1303 ई. में अलाउद्दीन खिलजी द्वारा, 1535 ई. में गुजरात के बहादुर शाह द्वारा तथा 1567-68 ई. में मुगल शासक अकबर के समय में और तीनों बार इसकी परिणिति जौहर के रूप में हुई।
जौहर- जब-जब चित्तौड़ पर पराजय का खतरा मंडराया है, तब-तब महिलाओं ने अपनी आन की रक्षा के लिए जौहर व्रत का पालन किया है। अग्नि शिखाओं में आत्माहुति दी है। चित्तौड़ की रानी पद्मावती का जिक्र आते ही इतिहास की वह घटना दिमाग में कौंध जाती है, जिसमें रानी पद्मावती को अन्य कई वीरांगनाओं के साथ ‘जौहर’ कर अपने सतीत्व की रक्षा करनी पड़ी।
मेवाड़ के भाटों में प्रचलित कथा के अनुसार यह घटना इस प्रकार बताई जाती है - चित्तौड़ के रावल रतनसिंह की रानी पद्मावती बड़ी रूपवती थी। उसके सौन्दर्य की प्रशंसा सुन दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने उसे प्राप्त करने के लिए चित्तौड़ पर चढ़ाई की। कहा जाता है कि शक्ति से पद्मावती को प्राप्त करने में असमर्थ उसने रावल को यह संदेश भिजवाया कि आइने में उसे पद्मावती का मुख ही दिखला दिया जाय तो वह वापस दिल्ली लौटने को तैयार है। अतः शांति रखने के लिए रावल रतनसिंह ने दर्पण में पद्मावती का मुह दिखाना स्वीकार कर लिया। सुल्तान अपने कुछ सैनिकों सहित दुर्ग में आया और पद्मावती के मुख का प्रतिबिम्ब देखकर लौट गया। राजपूत उसको पहुंचाने के लिए दुर्ग के नीचे तक गये जहां सुल्तान के संकेत पर रावल रतनसिंह को बंदी बना लिया गया और कहला भेजा कि रावल को तभी छोड़ा जाएगा जब पद्मावती सुल्तान के साथ चलने को राजी हो। इसके बाद हुए युद्ध में सुल्तान को निराश होकर दिल्ली लौटना पड़ा। अलाउद्दीन खिलजी लौट तो गया, किन्तु उसे चैन न पड़ा। वह फिर अपनी सेना को संगठित कर चित्तौड़ पर चढ़ आया। इस बार विजय खिलजी के हाथ लगी तथा पद्मावती ने जौहर किया। यह चित्तौड़ का प्रथम शाका कहलाता है।
इतिहास बताता है कि,1534 ई में गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने हमला किया जिसे दूसरा शाका कहा जाता है। इस युद्ध में 32000 हजार राजपूत खेत रहे और 13000 राजपूत वीरांगनाओं ने जौहर व्रत का पालन करते हुए आत्माहुति दी।
यहां सोचने की बात यह है कि, चित्तौड़ के इस दुर्ग में ऐसी क्या बात थी कि, यहां हमेशा युद्ध होते रहे, हर हार-जीत के बाद राजा बदलते रहे और बड़ी संख्या में वीर सैनिक मारे जाते रहे। चित्तौड़गढ़ में हुए तीन बड़े शाका में भारी संख्या में सैनिक मारे गए और जन-हानि हुई। रानियों को और दुर्ग में रहने वाले अन्य योद्धाओं की पत्नियों को अपनी दासियों के साथ सतीत्व की रक्षा के लिए जौहर अर्थात् आत्मदाह करना पड़ा। पद्मावती को रानी होने के बाद भी दुश्मन को अपना मुंह दिखाकर अपमानित होना पड़ा। चाहे हालात कुछ भी रहे हो। इन सभी घटनाओं के पीछे केवल एकमात्र कारण था। इस पहाड़ी की वास्तुदोष पूर्ण भौगोलिक स्थिति और उस पर किए गए वास्तुदोष पूर्ण निर्माण सबसे पहले इस पहाड़ी की भौगोलिक स्थिति और उसके वास्तु प्रभाव का विश्लेषण करते हैं-
वर्तमान चित्तौड़ शहर की पूर्व दिशा स्थित पहाड़ी 700 एकड़ अर्थात 13 किलोमीटर क्षेत्रफल में फैली हुई है। इस पहाड़ी पर चारों ओर दुर्ग की चारदीवार बनी हुई है। चारदीवारी के अन्दर पहाड़ी का ढलान दक्षिण पश्चिम दिशा एवं नैऋत्य कोण की ओर है और पहाड़ी की उत्तर, पूर्व दिशा एवं ईशान कोण की ओर ऊंचाई है। वास्तुशास्त्र के अनुसार ऐसे स्थान पर रहने वालों का परिवार नष्ट होता है, संतान और संपदा का नाश होता है एवं शत्रुओं की संख्या बढ़ जाती है।
एक ओर दुर्ग की चारदीवारी की पश्चिमी दीवार पश्चिम नैऋत्य से बढ़ाव लेते हुए पश्चिम वायव्य तक बढ़ती चली गई है, तो दूसरी ओर इसका ईशान कोण भी दबा हुआ और वायव्य कोण बढ़ा हुआ है। वास्तुशास्त्र के अनुसार अगर वायव्य कोण का बढ़ाव पश्चिम दिशा के साथ मिलकर होता है तो प्लाट का स्वामी चित्त-चांचल्य, राजा का क्रोध, अपमान, अनेक चिंताओं, धन और पुत्र नाश तथा गरीबी से पीड़ित रहता है और ईशान कोण दबा हुआ हो तथा वायव्य कोण बढ़ा हुआ हो तो शत्रुओं की संख्या बढ़ जाती है, संपदा और संतान का नाश होता है।
इस पहाड़ी पर ऊपर चढ़ने के दो रास्ते हैं। एक रास्ता पश्चिम दिशा की ओर से और दूसरा रास्ता पूर्व दिशा की ओर से है। दोनों ही रास्ते वास्तु की दृष्टि से गलत बने हैं। पश्चिम दिशा से जाने का रास्ता इस प्रकार बना है कि पहाड़ी पर चढ़ाई मध्य पश्चिम में नैऋत्य कोण से शुरू होती है। जहां पहला द्वार पाडन-पोल है। वास्तुशास्त्र के अनुसार दक्षिण नैऋत्य का द्वार स्त्रियों के लिए कष्टदायक होता है जिसे यम का द्वार भी कहते हैं। इसके बाद दूसरा भैरों पोल, तीसरा द्वार हनुमान् पोल है इसके बाद लक्ष्मण पोल, राम पोल होते हुए पहाड़ी पर पहुंचा जाता है। वहीं पूर्व दिशा की ओर से चढ़ाई का रास्ता इस प्रकार बना है कि, मध्य पूर्व में आग्नेय कोण से ऊपर की ओर चढ़ना पड़ता है। जहां सूर्य पोल है। वास्तुशास्त्र के अनुसार पूर्व आग्नेय का यह द्वार स्थिति विवाद उत्पन्न करता है। जो हमेशा यहां युद्ध का कारण बनती रही।
इस पहाड़ी पर कई तालाब व कुण्ड बने हुए हैं। सबसे बड़ा चत्रंग तालाब पश्चिम नैऋत्य में है। रत्नेश्वर तालाब, घी-तेल की बावड़ी, गौमुख कुण्ड, हाथी कुण्ड, कातन बावड़ी, जयमल फत्ता का तालाब, सूर्य कुण्ड, जल महल, भीमताल कुण्ड, अन्नपूर्णा बाणमाता के कुण्ड इत्यादि अन्य छोटे-बड़े सभी कुण्ड व तालाब पहाड़ी के पश्चिम वायव्य से लेकर पश्चिम नैऋत्य के बीच बने हैं। वास्तुशास्त्र के अनुसार अगर पश्चिम और नैऋत्य के बीच में या पश्चिम और वायव्य के बीच में पश्चिम की ओर कुंऐ, गड्ढे, तालाब, कुण्ड आदि खोदे जाएं तो संपदा नष्ट होती है, वंश का नाश होता है और वह स्थान अमंगल हो जाता है।
इन कुण्डों और तालाबों के अलावा भी पहाड़ी का ढलान पश्चिम वायव्य, पश्चिम दिशा, एवं पश्चिम नैऋत्य की ओर है। इन दिशाओं की ओर ढलान वाली भूमि पर निर्माण किए जाए तो वहां रहने वालों के शत्रुओं की संख्या बढ़ जाती है स्थल का स्वामी अशांति से पीड़ित रहता है।
रानी पद्मावती महल की दक्षिण दिशा में तालाब है और तालाब के बीच में एक छोटा महल बना है जिसे जलमहल कहते हैं। पद्मावती महल के एक कमरे में आज भी बड़े-बड़े शीशे लगे हुए हैं, जिसमें पानी के बीच वाले महल में खड़े व्यक्ति का प्रतिबिम्ब साफ दिखाई देता है। कहा जाता है कि, अलाउद्दीन खिलजी ने रानी पद्मावती का प्रतिबिम्ब इसी स्थान पर खड़े होकर देखा था। वास्तुशास्त्र के अनुसार जिस घर की दक्षिण दिशा में निचाई और पानी हो उस घर की स्त्रियां कभी सुखी नहीं रहती और उन्हें अपयश का सामना करना पड़ता है।
कुम्भा महल दुर्ग का वह स्थान है जहां रानी पद्मावती ने जौहर किया था। इस महल के दक्षिण भाग में तलघर है जिसमें महालक्ष्मी देवी का मंदिर भी है। तलघर के इस भाग के ऊपर छत नहीं है। महल के पश्चिम भाग में पूर्व दिशा की तुलना में निचाई है। जहां पन्नाधाय का महल है। दक्षिण-पश्चिम दिशा के यह वास्तुदोष वहां रहने वालों के लिए अमंगलकारी होकर विनाश का कारण बनते हैं।
जैसा कि गाइड ने मुझे बताया कि, इस पहाड़ी पर 113 मंदिर हैं, जिसमें से 50 आज भी अच्छी हालत में है। कुछ मंदिरों की भव्यता एवं खूबसूरती आज भी देखने लायक है, (जैसे समाधीश्वर मंदिर, कालका माता मंदिर, कुम्भास्वामी मंदिर, पातालेश्वर मंदिर, कुम्भाश्यामजी एवं मीरा मंदिर, जैन मंदिर, बाणमाता अन्नपूर्णा माता मंदिर, कुकडेश्वर महादेव मंदिर इत्यादि।) जहां दर्शनार्थियों की भीड़ लगी रहती है। इस छोटी पहाड़ी पर इतने मंदिर बनने के पीछे भी वास्तु की ही अहम् भूमिका रही है। वास्तुशास्त्र के अनुसार जहां पश्चिम में ढलान हो, गड्ढे हो, कुण्ड हो, तालाब हो, जिनमें पानी का भारी मात्रा में जमाव हो ऐसे स्थान पर रहने वालों में धार्मिकता अधिक होती है। पश्चिम दिशा के इसी वास्तु प्रभाव के कारण तत्कालीन राजाओं द्वारा समय-समय पर मंदिरों का निर्माण किया जाता रहा।
इस वास्तु विश्लेषण से स्पष्ट है कि, वास्तुशास्त्र का प्रभाव सभी पर समान रूप से पड़ता है चाहे वह राजा हो या रंक, झोपड़ा हो या महल। आप ही देखिए कि, वास्तुदोष पूर्ण भौगोलिक स्थिति के कारण ही चित्तौड़गढ़ में हमेशा युद्ध होते रहे, हजारों की तादाद में सैनिक मारे जाते रहे, स्त्रियों को आत्मदाह करना पड़ा।
आपके मन में यह विचार आ सकता है कि, अब ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति इस दुर्ग में क्यों निर्मित नहीं हो रही है? इसका कारण है, जब तक दुर्ग की चारदीवारी बनी हुई थी तब तक पूरी पहाड़ी का वास्तु एक था और उसका प्रभाव उस चारदीवारी के अन्दर रहने वालों पर पड़ रहा था,परन्तु आज चारदीवारी कई जगह से टूट गई है और कई पोल के दरवाजे निकल गए हैं, ऐसी स्थिति में अब जो लोग पहाड़ी पर स्थित बस्ती में रह रहे हैं उनके घरों के वास्तु प्रभाव उनके घर की बनावट के अनुसार उन परिवारों पर पड़ रहा है।
कुलदीप सलूजा
thenebula2001@gmail.com