Tanot Mata Mandir: इस मंदिर के चमत्कार के आगे पाकिस्तान के गिराए हजारों बम भी हो गए बेकार

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 16 Aug, 2023 07:49 AM

tanot mata mandir

तनोट माता का मंदिर अपने आप में अद्भुत है। सरहद पर बना यह मंदिर श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र होने के साथ-साथ भारत-पाक के 1965 और 1971 के युद्ध का मूक

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Tanot Mata Mandir: तनोट माता का मंदिर अपने आप में अद्भुत है। सरहद पर बना यह मंदिर श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र होने के साथ-साथ भारत-पाक के 1965 और 1971 के युद्ध का मूक गवाह भी रहा है। जैसलमेर से 120 किलोमीटर दूर इस मंदिर को चमत्कारिक माना जाता है। लगभग 1200 साल पुराना मंदिर जिस तनोट गांव में है उसे भाटी राजपूत राव तनुजी ने बसाया था। इन्होंने ही यहां पर ताना माता का मंदिर बनवाया जो वर्तमान में तनोट राय मातेश्वरी के नाम से जाना जाता है। देवी को ‘थार की वैष्णो देवी’ और ‘सैनिकों की देवी’ के उपनाम से भी जाना जाता है।

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वहीं वह ‘रुमाल वाली देवी’ के नाम से भी प्रसिद्ध हैं क्योंकि माता के प्रति प्रगाढ़ आस्था रखने वाले भक्त मंदिर में रुमाल बांधकर मन्नत मांगते हैं और मन्नत पूरी होने पर श्रद्धालु माता का आभार व्यक्त करने वापस दर्शनार्थ आते हैं और रुमाल खोलते हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच 1965 व 1971 में हुए युद्धों में पाक सीमा से सटे जैसलमेर में दुश्मन ने बम बरसाकर लोगों को दहशत में डालने और नुकसान पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

युद्ध के दौरान मंदिर के आस-पास पाकिस्तानी सेना ने करीब 3 हजार बम बरसाए और करीब 450 गोले तो मंदिर परिसर में ही गिरे लेकिन उनमें से एक भी नहीं फटा। इनमें से कई गोले आज भी मंदिर परिसर में देखे जा सकते हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि युद्ध के समय पाकिस्तानी सेना इस कदर उलझ गई थी कि रात के अंधेरे में वह अपने ही सैनिकों को भारतीय सैनिक समझ कर उन पर गोलाबारी करने लगी थी। मंदिर परिसर में विजय स्मारक भी बनाया गया है। युद्ध के बाद बी.एस.एफ. जवानों ने संभाला पूजा-अर्चना का जिम्मा तनोट क्षेत्र सामरिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है और मंदिर के महत्व को देखते हुए बी.एस.एफ. ने यहां अपनी चौकी बनाई है। इतना ही नहीं, अब बी.एस.एफ. के जवानों की ओर से ही इस मंदिर की पूरी देखरेख की जाती है।

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क्षेत्र के बुजुर्गों के अनुसार मुगल बादशाह अकबर के हिन्दू देवताओं से प्रभावित होकर विभिन्न मंदिरों में दर्शन करने और छत्र वगैरह चढ़ाने के किस्से भले ही प्रमाणित न हों, लेकिन इस बात के तो कई चश्मदीद गवाह मौजूद हैं कि 1965 के युद्ध के दौरान इस प्राचीन सिद्ध मंदिर की देवी के चमत्कारों से अभिभूत पाकिस्तानी सैन्य अधिकारी भी उनके दर्शन के लिए लालायित हो उठे थे।

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बताया जाता है कि वर्ष 1965 के युद्ध के दौरान माता के चमत्कारों के आगे नतमस्तक पाकिस्तानी ब्रिगेडियर शाहनवाज खान ने भारत सरकार से यहां दर्शन करने की अनुमति देने का अनुरोध किया। करीब अढ़ाई साल की जद्दोजहद के बाद भारत सरकार से अनुमति मिलने पर ब्रिगेडियर खान ने न केवल माता की प्रतिमा के दर्शन किए बल्कि मंदिर में चांदी का एक सुंदर छत्र चढ़ाया। ब्रिगेडियर खान का चढ़ाया हुआ छत्र आज भी इस घटना का गवाह बना हुआ है।

 

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