Edited By Niyati Bhandari,Updated: 04 Jan, 2025 12:08 PM
Triveni Sangam: भारत में नदियों के अनेक संगम स्थल हैं। उन सबका अपना-अपना धार्मिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक महत्व है, किन्तु प्रयाग के जिस संगम की चर्चा यहां की जा रही है उसका परम्परा से अपना वैशिष्ट्य रहा है। प्रयाग में गंगा-यमुना-सरस्वती के संधि...
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Triveni Sangam: भारत में नदियों के अनेक संगम स्थल हैं। उन सबका अपना-अपना धार्मिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक महत्व है, किन्तु प्रयाग के जिस संगम की चर्चा यहां की जा रही है उसका परम्परा से अपना वैशिष्ट्य रहा है। प्रयाग में गंगा-यमुना-सरस्वती के संधि स्थल को ही संगम कहा गया है। पुराणों का कथन है कि जो लोग श्वेत (सित) तथा कृष्ण (नील या असित) दो नदियों के मिलन स्थल (संगम) पर स्नान करते हैं, वे स्वर्ग जाते हैं। इस दृष्टि से प्रयाग के संगम स्थल पर विचार करना अपेक्षित है कि उसमें त्रिधाराओं का संगम है या द्विधाराओं का ही। प्रयागराज यानी इलाहाबाद में अनेक दर्शनीय स्थल हैं जिनमें एल्फ्रेड पार्क जहां महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद ने शहीदी प्राप्त की थी से लेकर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी तक शामिल हैं।
त्रिवेणी का साक्ष्य : श्रुति, स्मृति और पुराणों का अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि जहां स्मृतियों तथा पुराणों में प्रयाग का महत्व विस्तार से वर्णित है, वहीं श्रुतियों के केवल ऋग्वेद के दो स्थलों पर उसका उल्लेख हुआ है। तीर्थ-चिन्तामणि में उद्धत ऋग्वेद (खिल 10/24) के मंत्र में कहा गया है कि जिस स्थान पर श्वेतवर्णा (धवला) गंगा और असितवर्णा (नीलवर्णा) यमुना, ये दो नदियां मिलती हैं, उस स्थल पर स्नान करने से स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। जो जन उस स्थान पर शरीर विसर्जन करते हैं वे भी अमर हो जाते हैं।
ऋग्वेद मंत्र से प्रभावित होकर महाकवि कालिदास ने रघुवंश (13/58) में कहा है कि सितासित धाराओं से संयुक्त गंगा-यमुना के संगम पर जो व्यक्ति स्नान कर पवित्र होते हैं वे तत्वज्ञानी न होने पर भी संसार के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं। इस संदर्भ में कालिदास ने भी सरस्वती की चर्चा नहीं की है। इस मंत्र से यह ज्ञात होता है कि प्रयाग का गंगा-यमुना के संगम के रूप में महत्व माना गया है।
इस मंतव्य के विपरीत त्रिवेणी शब्द से गंगा-यमुना-सरस्वती का संगम ग्रहण किया जाता है और इन तीनों महानदियों का संगम स्थल प्रयाग में बताया जाता है। इस दृष्टि से श्रुति स्मृति तथा पुराणों का अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि प्रयाग में त्रिवेणी के संबंध में मत मतांतर है। इस संबंध में प्राचीनतम उद्धरण नागेश भट्ट के तीर्थेंदु शेखर में उद्धत ऋग्वेद (खिल 9/113/12) का मंत्र है, जिसमें गंगा, यमुना तथा सरस्वती के संगम का उल्लेख किया गया है। ‘यत्र गंगा च यमुना च यंत्र प्राची सरस्वती’ ऋग्वेद के इस मंत्र के अतिरिक्त कतिपय पुराण वचनों तथा निबंधकारों के निर्देशों से भी इसकी पुष्टि होती है।
भीमासेक नारायण भट्ट ने त्रिस्थलीसेतु में प्रयाग को तीन नदियों का संगम बताते हुए लिखा है कि आकारस्वरूप सरस्वती, उकर स्वरूप यमुना और मकर स्वरूप गंगा से संबंधित प्रणव (ओंकार) ही प्रयाग है। उनके इस मंतव्य का आधार पुराण, संभवत: ब्रह्मपुराण का यह वचन रहा है-
‘एवं त्रिवेणी विख्याता वेदचीर्ज प्रकीर्तिता।’
उक्त ग्रंथों के अतिरिक्त तीर्थ चिन्तामणि में भी तीनों नदियों के संगम का इस प्रकार उल्लेख हुआ है :-
‘सितासिता तु या धारा सरस्वत्या विदर्मिता।’
सरस्वती के उद्गम और अंतर्ध्यान संबंधी मतांतर : उक्त कतिपय स्फुट एवं प्रमाण निरपेक्ष्य वचनों के अतिरिक्त रामायण और अन्यान्य पुराणों तथा निबंधकारों ने प्रयाग में केवल गंगा और यमुना के ही संगम का उल्लेख किया है। सरस्वती का उनमें समावेश नहीं है। सरस्वती के उद्गम तथा विलुप्त होने संबंधी विभिन्न ग्रंथों में जो उल्लेख मिलते हैं, उनके आधार पर प्रयाग में सरस्वती का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता।
सरस्वती के संबंध में अब तक जो विचार प्रकाश में आए हैं, उनका निष्कर्ष इस प्रकार है-
ऋग्वेद में लगभग चालीस बार इस पुण्यतोया नदी का नाम उल्लेखित है। इन सभी मंत्रों में उनकी दिव्य महिमा का वर्णन है। इसके साथ अनेक ऐतिहासिक धार्मिक तथा आध्यात्मिक घटनाएं संबंद्ध है। उसके उद्गम स्थल के संबंध में अनेक मत हैं। कुछ विद्वान इसका उद्गम मीरपुर पर्वत और विनशन (बीकानेर) में विलुप्त होना बताते हैं। पटियाला की वर्तमान सुस्सुति ही अदृश्य होकर प्रयाग में गंगा-यमुना से मिल गई, ऐसा भी कुछ लोगों का कहना है। जैमिनीय ब्राह्मण (2/26/12) में सरस्वती के प्लक्ष प्रसवण नामक स्थान में प्रकट होने का उल्लेख है।
तांड्यब्रह्मण (32/1-4) में सरस्वती को प्लक्ष से निकली हुए और सहस्त्रों पहाड़ियों का विदीर्ण करती हुई द्वैतवन में प्रवेश करते हुए दिखाया गया है। विनशन से लेकर प्लक्ष प्रस्रवण तक की पारस्परिक दूरी अश्वगति से चालीस दिनों की बताई गई है। महाभारत (शल्य पर्व 51/19) के अनुसार सरस्वती का उद्गम ब्रहांसर और वामनपुराण (2/42-43) के अनुसार बदरिकाश्रम से हुआ है।
ब्रह्मपुराण (3/8) के अनुसार ब्रह्महत्या के पाप से युक्त होने के कारण शंकर इसमें कूद पड़े थे जिससे वह अंर्तिहत हो गई। महाभारत (अनु. 155/25-27) में लिखा है कि सरस्वती उतथ्य के शाप से मरु देश में चली गई और सूखकर अपवित्र हो गई। अंतर्ध्यान होने के उपरांत वह चमसोद्मेद शिवोद्मेद एवं नागोद्मेद पर दिखाई पड़ी। कुछ विद्वानों के मत से सरस्वती स्वतंत्र नदी न होकर अपर नाम सिंधु ही है। उक्त प्रमाणों से विदित होता है कि सरस्वती एक विशाल जलपूर्ण नदी थी। वह यमुना और शुतुद्रि के मध्य बहती थी (ऋग्वेद 10/75/5) ऋग्वेद (6/61/12) में उसका स्वतंत्र नदी के रूप में उल्लेख है और निरुधत (2/23) में भी उसे नदी ही कहा गया है (तत्र सरस्वती इत्येस्य नदवित्)।
वात्सनेय संहिता (34/11) में ऐसा उल्लेख हुआ है कि पांच नदियां अपनी सहायक नदियों के साथ सरस्वती में मिलती हैं (पंच नम: सरस्वतीमपि यान्ति)। पश्चिम में विनशन तक उसकी सीमा निर्धारित की गई है। भाष्यकार मेधातिथि का कथन है कि विनशन सरस्वती का अंतर्ध्यान स्थल है। प्रयाग में गंगा-यमुना का संगम है (विनशनं सरस्वत्या अंतर्धानदेश:। प्रयागों गंगानुमयो: संगम) इस प्रकार कुत्लुक भट्ट ने भी विनशन में ही सरस्वती का अंतर्ध्यान बताया है। वेदों, ग्रंथों और पुराणों आदि में सरस्वती के संबंध में भी वर्णन मिलते हैं। उन सबका तारतम्य बदरी क्षेत्र से निकलने वाली सरस्वती नदी से बैठता है। केशव प्रयाग में वह अलकनंदा (गंगा) से संधि करती है।
इन विभिन्न मंतव्यों का अनुशीलन करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि मनुस्मृति के रचनाकाल तक सरस्वती का अंतर्ध्यान प्रदेश प्रयाग न होकर विनशन (बीकानेर) था। सरस्वती को गंगा-यमुना के संगम से सम्बद्ध करने का प्रचलन बहुत बाद में, संभवत: ब्रह्मपुराण के साथ हुआ।