Edited By Punjab Kesari,Updated: 13 Jul, 2017 11:39 AM
महाराष्ट्र के पंढरपुर में एक वार्षिक उत्सव में हिस्सा लेने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। प्रतिवर्ष इस समूह का प्रमुख आकर्षण दो विशेष व अनूठे सदस्य बनते हैं।
महाराष्ट्र के पंढरपुर में एक वार्षिक उत्सव में हिस्सा लेने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। प्रतिवर्ष इस समूह का प्रमुख आकर्षण दो विशेष व अनूठे सदस्य बनते हैं। दरअसल, ये दो श्वेत अश्व हैं जो बेलागावी जिले के अनकली गांव से आते हैं। पुणे के निकट स्थित ज्ञानेश्वर आलंदी वह स्थल है जहां माना जाता है कि संत ज्ञानेश्वसर ने समाधि ली थी। ये श्वेत अश्व करीब 50 श्रद्धालुओं के साथ इस गांव तक पहुंचते हैं। यहां से ये दोनों संत की चरण पादुकाओं के साथ हजारों श्रद्धालुओं का नेतृत्व करते हुए पंढरपुर की ओर बढ़ते हैं। अनकली से आलंदी तथा वहां से पंढरपुर तक 550 किलोमीटर की यात्रा 11 दिनों में पूर्ण होती है। इस सप्ताह की शुरूआत में दो अश्व इस वार्षिक यात्रा के लिए अनकली के पूर्व राजा श्रीमंत सरदार कुमार महादजी राजे शितोले सरकार अनकलीकार के आवास से निकले। परम्परा के अनुसार ये अश्व आलंदी में रुक कर श्रद्धालुओं के जमा होने की प्रतीक्षा करते हैं और फिर उनका नेतृत्व करते हुए पंढरपुर तक पहुंचते हैं।
अश्व नृत्य
आशाढ़ एकादशी के दिन पंढरपुर में इन अश्वों का ‘रिंगन’ अथवा घुमावदार नृत्य एक प्रमुख आकर्षण होता है। एक अश्व पर श्रद्धालु सवार होता है जबकि अन्य पर कोई सवार नहीं होता क्योंकि मान्यता है कि उस अश्व पर स्वयं ईश्वर सवारी करते हैं। महादजी के अनुसार यह 185 वर्ष पुरानी परम्परा है। वह कहते हैं, ‘‘प्रगतिशील विचारों के लिए जब संत ज्ञानेश्वर का विरोध कुछ समूहों ने किया तो अनकली के राजा ने उनका साथ दिया था। भगवद् गीता का मराठी अनुवाद करने के बाद संत आलंदी में ही रहने लगे थे।’’
1832 में अपने दो सर्वोत्तम अश्वों के साथ राजा संत से मिलने गए जहां से वे पंढऱपुर चले गए। आलंदी जाने तथा वहां से आशाढ़ एकादशी समारोहों के लिए पंढरपुर पहुंचने की परम्परा का संबंध उक्त घटना से जुड़ा है। प्रत्येक 10 वर्षों में अश्व बदल दिए जाते हैं। इस यात्रा में भाग ले चुके लोग बताते हैं कि अश्व तथा श्रद्धालु प्रतिदिन 50 किलोमीटर यात्रा करते हैं। इस दौरान वे जिस भी गांव से गुजरते हैं उनका गर्मजोशी से स्वागत होता है।