Edited By Niyati Bhandari,Updated: 04 May, 2024 08:13 AM
महान कृष्ण भक्त महाप्रभु वल्लभाचार्य की जयंती वैशाख कृष्ण एकादशी के दिन मनाई जाती है। इस दिन को वरूथिनी एकादशी भी कहा जाता है। पिता लक्ष्मण भट्ट और माता इलम्मागारू के यहां जन्मे वल्लभाचार्य जी का
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Vallabh Acharya Jayanti 2024: महान कृष्ण भक्त महाप्रभु वल्लभाचार्य की जयंती वैशाख कृष्ण एकादशी के दिन मनाई जाती है। इस दिन को वरूथिनी एकादशी भी कहा जाता है। पिता लक्ष्मण भट्ट और माता इलम्मागारू के यहां जन्मे वल्लभाचार्य जी का अधिकांश समय काशी, प्रयाग और वृंदावन में बीता। उनकी पत्नी का नाम महालक्ष्मी और उनके दो पुत्र थेगोपीनाथ तथा विट्ठलनाथ। जब इनके माता-पिता उत्तर की ओर से दक्षिण भारत जा रहे थे तब रास्ते में छत्तीसगढ़ के रायपुर नगर के पास चम्पारण्य में 1479 ईस्वी में वल्लभाचार्य का जन्म हुआ। बाद में काशी में उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई और वहीं उन्होंने अपने मत का उपदेश भी दिया। रुद्र सम्प्रदाय के विल्व मंगलाचार्य जी द्वारा इन्हें अष्टदशाक्षर गोपाल मंत्र की दीक्षा दी गई और त्रिदंड संन्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेंद्र तीर्थ से प्राप्त हुई।
उनके प्रमुख शिष्य : ऐसा माना जाता है कि वल्लभाचार्य जी के 84 शिष्य थे जिनमें सूरदास, कृष्णदास, कुम्भनदास व परमानंद दास प्रमुख हैं। कहते हैं कि सूरदास विश्व को कभी न मिलते यदि उनकी भेंट वल्लभाचार्य जी से न होती। उन्होंने ही सूरदास को श्री कृष्ण की भक्ति का मार्ग बताया था।
जीव ही ब्रह्म है : वल्लभाचार्य जी के अनुसार जीव ही ब्रह्म है। कृष्ण को ही ब्रह्म का स्वरूप मानना उनके प्रति समर्पण है। वल्लभाचार्य जी ने इस मार्ग को पुष्टि दी और देश में कृष्ण भक्ति की धारा प्रवाहित की। वल्लभाचार्य के अनुसार तीन ही तत्व हैं- ‘ब्रह्म’, ‘ब्रह्मांड’ और ‘आत्मा’ अर्थात ‘ईश्वर’, ‘जगत’ और ‘जीव’।
उक्त तीन तत्वों को केंद्र में रख कर ही उन्होंने जगत और जीव के प्रकार बताए और इनके परस्पर संबंधों का खुलासा किया।
उनके अनुसार ब्रह्म ही एकमात्र सत्य, सर्वव्यापक और अंतर्यामी है। कृष्ण भक्त होने के नाते उन्होंने कृष्ण को ब्रह्म मानकर उनकी महिमा का वर्णन किया है। वल्लभाचार्य के अद्वैतवाद में माया का संबंध अस्वीकार करते हुए ब्रह्म को कारण और जीव जगत को उसके कार्य रूप में वर्णित किया गया है।
प्रसिद्ध ग्रंथ : ब्रह्मसूत्र पर ‘अणुभाष्य’ जिसे ‘ब्रह्मसूत्र भाष्य’ अथवा ‘उत्तरमीमांसा’ भी कहते हैं, श्रीमद् भागवत पर ‘सुबोधिनी टीका’ और ‘तत्वार्थदीप निबंध’ उनके द्वारा रचित प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। इसके अलावा भी उनके अनेक ग्रंथ हैं। सगुण और निर्गुण भक्ति धारा के दौर में वल्लभाचार्य जी ने अपना दर्शन खुद गढ़ा था लेकिन उसके मूल सूत्र वेदांत में ही निहित हैं। उन्होंने रुद्र सम्प्रदाय के प्रवर्तक विष्णु स्वामी के दर्शन का अनुसरण तथा विकास करके अपना ‘शुद्धद्वैत’ मत या ‘पुष्टिमार्ग’ स्थापित किया था।
महाप्रभु की 84 बैठकें : श्री वल्लभाचार्य जी ने अपनी यात्राओं में जहां श्रीमद्भागवत का प्रवचन किया अथवा जिन स्थानों का उन्होंने विशेष माहात्म्य बतलाया था, वहां उनकी बैठकें बनी हुई हैं जो ‘आचार्य महाप्रभु जी की बैठकें’ कहलाती हैं। समस्त देश में फैली हुई वल्लभ सम्प्रदाय की ये बैठकें मन्दिर-देवालयों की भांति ही पवित्र व दर्शनीय मानी जाती हैं जिनकी संख्या 84 है। इनमें से 24 बैठकें ब्रजमंडल में ब्रज चौरासी कोस की यात्रा के विविध स्थानों में बनी हुई हैं।
जल समाधि : 52 वर्ष की आयु में सन् 1531 में काशी में हनुमानघाट पर गंगा में प्रविष्ट होकर जल समाधि लेकर वह ब्रह्म में विलीन हो गए।