Edited By Prachi Sharma,Updated: 26 May, 2024 07:42 AM
प्राचीन विंध्यवासनी देवी का सिद्धपीठ मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से 70 किलोमीटर दूर सलकनपुर गांव में एक 800 फुट ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। मंदिर तक पहुंचने के लिए भक्तों को 1400 सीढ़ियों से जाना पड़ता है
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Vindhyawasini Mata Mandir: प्राचीन विंध्यवासनी देवी का सिद्धपीठ मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से 70 किलोमीटर दूर सलकनपुर गांव में एक 800 फुट ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। मंदिर तक पहुंचने के लिए भक्तों को 1400 सीढ़ियों से जाना पड़ता है, जबकि पहाड़ी पर जाने के लिए कुछ वर्ष पहले सड़क मार्ग भी बना दिया गया है। दर्शनार्थियों के लिए रोप-वे भी शुरू हो गया है, जिसकी मदद से यहां 5 मिनट में पहुंचा जा सकता है।
विध्यांचल पर्वत शृंखला पर विराजी माता को विंध्यवासिनी देवी भी कहा जाता है। पुराणों के अनुसार देवी विजयासन माता पार्वती का ही अवतार हैं, जिन्होंने देवताओं के आग्रह पर रक्तबीज नामक राक्षस का वध किया था और सृष्टि की रक्षा की थी।
श्रीमद्भागवत कथा के अनुसार, जब रक्तबीज नामक दैत्य से त्रस्त होकर देवता देवी की शरण में पहुंचे, तो देवी ने विकराल रूप धारण कर लिया और इसी स्थान पर रक्तबीज का संहार कर उस पर विजय पाई। मां भगवती की इस विजय पर देवताओं ने जो आसन दिया, वही विजयासन धाम के नाम से विख्यात हुआ। मां का यह रूप विजयासन देवी कहलाया।
6000 वर्ष पुराना मंदिर
मान्यता है कि यह मंदिर 6000 साल पुराना है, जिसका जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुंचने पर अनेक बार जीर्णोद्धार किया जा चुका है। इसकी व्यवस्था भोपाल नवाब के संरक्षण में होती थी। तब वहां पर अखंड धूनी और अखंड ज्योति स्थापित की जा चुकी थी, जो सालों से आज भी प्रज्वलित है। गर्भगृह में देवी की प्रतिमा स्वयंभू है, जिसे किसी के द्वारा तराशा नहीं गया परंतु बाद में चांदी के नेत्र एवं मुकुट आदि से देवी को सजाया गया।
विजयासन देवी की प्रतिमा के दाएं-बाएं जो 3 संगमरमर की मूर्तियां हैं, उनके विषय में मान्यता है कि गिन्नौर किले के वीरान होने पर एक घुमक्कड़ साधु इन्हें यहां पर ले आया था। स्वतंत्र भारत की मध्य प्रदेश विधानसभा ने 1956 में इस मंदिर व्यवस्था का पृथक से अधिनियम बनाया, जो 1966 में लागू हुआ तथा मंदिर की व्यवस्था प्रजातांत्रिक तरीके से गठित समिति के हाथों में आई।
गर्भगृह के दोनों ओर द्वारपाल की स्थापना है। द्वार के ठीक ऊपर मां के सेवक लांगुरवीर अर्थात हनुमान जी की मूर्ति स्थापित है। मां विजयासन की प्रतिमा के साथ-साथ गर्भगृह में कुछ अन्य मूर्तियां विराजमान हैं। वे महालक्ष्मी, महासरस्वती, महाकाली और महागौरी की प्रतिमाएं हैं, जिन्हें एक प्रकार से वैष्णो रूप में माना जाता है।
गर्भगृह में लगभग 500 वर्षों से अधिक समय से 2 अखंड ज्योतियां प्रज्वलित हैं-एक नारियल के तेल तथा दूसरी घी की। मंदिर के भीतर गर्भगृह के ठीक सामने भैरव बाबा की मूर्ति स्थापित है, जहां भक्त माता के दर्शनों को पूर्ण और सार्थक मानते हैं। मंदिर में ही भैरव बाबा की मूर्ति के किनारे एक धूनी है, जो 500 सालों से अखंड जल रही है। इस जलती धूनी को स्वामी भद्रानंद और उनके शिष्यों ने प्रज्वलित किया था तथा तभी से इस अखंड धूनी की भस्म अर्थात राख को ही महाप्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है।
2025 में हो जाएगा देवीलोक तैयार
मुख्य मंदिर और कॉम्प्लैक्स के पुननिर्माण पर 15 करोड़ रुपए से अधिक की राशि खर्च की जा रही है। यहां आधुनिक रोपवे भी 2025 तक पूरा होने की उम्मीद की जा रही है।