Edited By Niyati Bhandari,Updated: 22 Sep, 2020 10:09 AM
महर्षि विश्वामित्र महाराज गाधि के पुत्र थे। कुश वंश में जन्म होने के कारण इन्हें कौशिक भी कहते हैं। वह बड़े ही प्रजापालक तथा धर्मात्मा राजा थे। एक बार वह सेना को साथ लेकर जंगल में शिकार खेलने के
Vishwamitra ki katha: महर्षि विश्वामित्र महाराज गाधि के पुत्र थे। कुश वंश में जन्म होने के कारण इन्हें कौशिक भी कहते हैं। वह बड़े ही प्रजापालक तथा धर्मात्मा राजा थे। एक बार वह सेना को साथ लेकर जंगल में शिकार खेलने के लिए गए। वहां वह महर्षि वसिष्ठ के आश्रम पर पहुंचे। महर्षि वसिष्ठ ने इनसे इनकी तथा राज्य की कुशलक्षेम पूछी और सेना सहित आतिथ्य-सत्कार स्वीकार करने की प्रार्थना की।
विश्वामित्र ने कहा, ‘‘भगवन्! हमारे साथ लाखों सैनिक हैं। आपने जो फल-फूल दिए हैं, उसी से हमारा सत्कार हो गया। अब हमें जाने की आज्ञा दें।’’
महर्षि वसिष्ठ ने उनसे बार-बार पुन: आतिथ्य स्वीकार करने का आग्रह किया। उनके विनय को देखकर विश्वामित्र ने अपनी स्वीकृति दे दी। महर्षि वसिष्ठ ने अपने योगबल और कामधेनु की सहायता से विश्वामित्र को सैनिकों सहित भली-भांति तृप्त कर दिया। कामधेनु के विलक्षण प्रभाव से विश्वामित्र चकित हो गए। उन्होंने कामधेनु को देने के लिए महर्षि वसिष्ठ से प्रार्थना की। वसिष्ठ जी के इंकार करने पर वे जबरन कामधेनु को अपने साथ ले जाने लगे। कामधेनु ने अपने प्रभाव से लाखों सैनिक पैदा कर दिए। विश्वामित्र की सेना भाग गई और वह पराजित हो गए। इससे विश्वामित्र को बड़ी ग्लानि हुई। उन्होंने अपना राज-पाट छोड़ दिया और जंगल में जाकर ब्रह्मऋषि होने के लिए कठोर तपस्या करने लगे।
तपस्या करते हुए सबसे पहले मेनका अप्सरा के माध्यम से विश्वामित्र के जीवन में काम का विघ्न आया। वह सब कुछ छोड़कर मेनका के प्रेम में डूब गए। जब इन्हें होश आया तो इनके मन में पश्चाताप का उदय हुआ। वह पुन: कठोर तपस्या में लगे और सिद्ध हो गए। काम के बाद क्रोध ने भी विश्वामित्र को पराजित किया। राजा त्रिशंकु सदेह स्वर्ग जाना चाहते थे। यह प्रकृति के नियमों के विरुद्ध होने के कारण वसिष्ठ जी ने उनका कामनात्मक यज्ञ कराना स्वीकार नहीं किया। विश्वामित्र के तप का तेज उस समय सर्वाधिक था। त्रिशंकु विश्वामित्र के पास गए।
वसिष्ठ से पुराने वैर को स्मरण करके विश्वामित्र ने उनका यज्ञ कराना स्वीकार कर लिया। सभी ऋषि इस यज्ञ में आए किंतु वसिष्ठ के सौ पुत्र नहीं आए। इस पर क्रोध के वशीभूत होकर विश्वामित्र ने उन्हें मार डाला। अपनी भयंकर भूल का ज्ञान होने पर विश्वामित्र ने पुन: तप किया और क्रोध पर विजय करके ब्रह्मऋषि हुए। सच्ची लगन और सतत् उद्योग से सब कुछ संभव है, विश्वामित्र ने इसे सिद्ध कर दिया।
श्री विश्वामित्र जी को भगवान श्रीराम का दूसरा गुरु होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वह दंडकारण्य में यज्ञ कर रहे थे। रावण के द्वारा वहां नियुक्त ताड़का, सुबाहु और मारीच-जैसे राक्षस इनके यज्ञ में बार-बार विघ्न उपस्थित कर देते थे। विश्वामित्र जी ने अपने तपोबल से जान लिया कि त्रैलोक्य को भय से त्राण दिलाने वाले परब्रह्म श्रीराम का अवतार अयोध्या में हो गया है। फिर वह अपनी यज्ञ रक्षा के लिए श्रीराम को महाराज दशरथ से मांग कर ले आए। विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा हुई। इन्होंने भगवान श्रीराम को अपनी विद्याएं प्रदान कीं और उनका मिथिला में श्री सीता जी से विवाह सम्पन्न करवाया। महर्षि विश्वामित्र आजीवन पुरुषार्थ और तपस्या के मूर्तिमान प्रतीक रहे। सप्तऋषि मंडल में वह आज भी विद्यमान हैं।