Edited By Prachi Sharma,Updated: 21 Jan, 2025 02:48 PM
काम, क्रोध और लोभ नर्क के तीन द्वार हैं, इनसे आत्मा का विनाश होता है। भगवान कृष्ण तीनों से ही मुक्ति पाने का उपदेश देते हैं। किसी भी तरह की वासना, फिर चाहे वह अन्न की हो या यौन-क्रिया की
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त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः | कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत|| भगवद गीता, अध्याय १६, श्लोक २१ ||
What are the three gateways to hell: काम, क्रोध और लोभ नर्क के तीन द्वार हैं, इनसे आत्मा का विनाश होता है। भगवान कृष्ण तीनों से ही मुक्ति पाने का उपदेश देते हैं। किसी भी तरह की वासना, फिर चाहे वह अन्न की हो या यौन-क्रिया की, सत्ता की या फिर संपत्ति की, मनुष्य को भौतिक संसार से बांध देती है (जो नश्वर हैं) सत्य से कोसों दूर। इच्छाओं के प्रभाव में मानव स्थूल के पीछे भागता रहता है और जब आंख खुलती है तो स्वयं को किसी अस्पताल के आई.सी.यू में पाता है। उसका जन्म व्यर्थ जाता है और आगामी जन्म अधिक निम्न व कष्टदायी श्रेणी में होता है। इतिहास साक्षी है रावण का स्त्री मोह उसके विनाश का कारण बना तथा भस्मासुर की शक्ति के प्रति लालसा उसके पतन का कारण बनी।
क्रोध के कारण भी मनुष्य की सोचने और सृजनात्मक कार्य करने की क्षमता क्षीण हो जाती है। क्रोध आसक्ति का लक्षण है। इसी संदर्भ में जापान के दो समुराईयों की एक रोचक कथा है। दो जापानी समुराई में द्वंद्वयुद्ध हो रहा था। लड़ाई के बीच, एक समुराई का हथियार नीचे गिर गया और साथ ही वह गिर गया। तभी जब उसका प्रतिद्वंद्वी उसकी हत्या करने हेतु आगे बढ़ा, तो उसने अपने प्रतिद्वंद्वी के मुह पर थूक दिया। तब उस प्रतिद्वंद्वी ने अपनी तलवार मयान में डाल ली। पूछे जाने पर उसने बताया की अगर उसने उस समय उस गिरे हुए निःशस्त्र समुराई की हत्या कर दी होती, तो वह एक क्रोध से उत्पन्न प्रतिक्रिया होती, न कि युद्ध नीति अनुसार में विरोधी का वध।
उस वीर समुराई के पास बल भी तहत और मौका भी, फिर भी उसने संयम दर्शाया, यही साधक के लक्षण है केवल ऐसा ही व्यक्ति मोक्ष का अधिकारी है। जब शरीर में क्रोध जैसे नकारात्मक भाव आश्रय करने लगते हैं, तो मनुष्य आध्यात्मिक उन्नति का लक्ष्य भुलाकर अपना जन्म व्यर्थ गवां देता है और तीव्र गति से पतन की ओर बढ़ता है। इस तथ्य का प्रमाण यह है कि जब कोई इंसान क्रोधित होता है, तो उसका ह्रदय-दर बढ़ जाता है और श्वास का दर भी, कभी-कभी तो इंसान को सांस लेने में भी कठिनाई होने लगती है, ऐसे ही लक्षण मरते हुए इंसान में भी पाए जाते हैं।
लोभ प्रकृति की प्रतिकूल क्रिया है। प्रकृति का आधार है, देना और संग्रह न करना। सूर्य हमें प्रकाश देता है, नदियां जल देती हैं, वृक्ष आहार और वायु देते हैं। यदि इनमें से कोई भी लोभ से ग्रस्त होकर, स्वार्थ लिए संग्रह करना शुरू कर दे तो सृष्टि का विनाश हो जाएगा। मनुष्य सृष्टि का अभिन्न अंग है इसलिए यही नियम उस पर भी लागू होता है। मनुष्य के लोभ के कारण वे धोखाधड़ी, प्राकृतिक संसाधनों की लूटमार, पशु-पक्षियों के शोषण करने लगते हैं। ऐसा कर वह सृष्टि के विनाश के घोर कर्मों का भागीदारी बन जाता है। जिसके कारण से वह नर्कों की तरफ बढ़ते हैं, ऐसा भगवद गीता में लिखा हुआ है।
सृष्टि द्वंदों का संतुलन है। अगर प्रकाश है, तो अंधकार भी है। अगर शांति है, तो शोर भी है। अगर स्वर्ग है, तो नर्क का भी है। श्रीमद्भगवद्गीता हमें दोनों ही मार्ग बताती है। काम, क्रोध और लोभ के विपरीत गुणों के अनुसरण से स्वर्ग खुलते हैं।
अश्विनीजी गुरुजी