Edited By Punjab Kesari,Updated: 19 Jan, 2018 03:44 PM
सामाजिक और राजनीतिक चेतना के साथ ही देश के दलित और आदिवासियों में पढऩे की ललक भी तेजी से...
नई दिल्ली : सामाजिक और राजनीतिक चेतना के साथ ही देश के दलित और आदिवासियों में पढऩे की ललक भी तेजी से बढ़ रही है। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के ताजे आंकड़े बता रहे हैं कि बीते 5 साल में उच्च शिक्षा में प्रवेश लेने वाले दलित और आदिवासी बच्चों में उत्तरोत्तर तेजी से वृद्धि हुई है। दलित-आदिवासियों में पढ़ाई के लिए बढ़ती ललक एक क्रांतिकारी चेतना का प्रतीक कहा जा रहा है। शिक्षा के अभाव के चलते इन वर्गों का लंबे समय तक उत्पीडऩ और शोषण होता रहा है। गरीबी और सामाजिक असमानता के चलते इस वर्ग के अधिकांश बच्चे बचपन में ही स्कूल छोड़ रोजी-रोजगार में लग जाते थे। शिक्षित होने से बीते कुछ वर्षों से इनमें न केवल सामाजिक चेतना आई है, बल्कि अपने अधिकारों के प्रति भी यह वर्ग जागरूक हुआ है और वर्ग मुखर होकर आगे आने लगा है। गुजरात के ऊना कांड के बाद दलितों का सड़कों पर उतरना और हाल में महाराष्ट्र के कोरेगांव की घटना के बाद दलितों का विरोध प्रदर्शन उनकी सियासी चेतना का ही प्रतीक है। शिक्षित होने से यह वर्ग अब देश के मूलधारा में अपनी सहभागिता निभाते दिख रहा है।
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से कराए गए एक सर्वे के मुताबिक पिछले 5 वर्षों में उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश दर में कुल 21.5 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई। इसमें अनुसूचित जाति की भागीदारी जो 2012-13 में 16 प्रतिशत थी, 2016-17 में बढ़ कर 21.1 प्रतिशत पर पहुंच गई। इसी तरह अनुसूचित जनजाति की 2012-13 में 11.1 प्रतिशत थी जो 2016-17 में बढ़ कर 15.4 प्रतिशत पर पहुंच गई। ध्यान देने वाली बात यह है कि दोनों वर्ग के युवाओं के साथ लड़कियों ने भी उच्च शिक्षा में अपनी रुचि बढ़ाई है। हालांकि इसके पीछे आरक्षण एक बड़ा कारण है, जिससे संबंधित वर्ग के युवाओं को उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश आसानी से मिल रहा है और उन्हें छात्रवृत्ति की भी सुविधा सरकारों से मिल रही है।
राज्यवार इस ब्योरे को देखें तो तमिलनाडु पहले नंबर है, जहां दलित और आदिवासी युवा उच्च शिक्षा में विशेष रुचि ले रहे हैं। आंध्र प्रदेश दूसरे नंबर पर और महाराष्ट्र तीसरे नंबर पर। आबादी के हिसाब से सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश पांचवें नंबर पर है, जो कि राष्ट्रीय दर के लगभग बराबर पर है। बिहार अभी भी इस मामले में सबसे फिसड्डी बना हुआ है। जबकि पश्चिम बंगाल उससे बेहतर स्थिति में है।