23 मार्च शहीदी दिवस: आजादी के जोशीले दीवाने शहीदों को नमन

Edited By ,Updated: 23 Mar, 2016 09:52 AM

bhagat singh raj guru sukhdev

जब अंग्रेजों के अत्याचारों से त्रस्त हमारे देश में चारों ओर हाहाकार मची हुई थी तो ऐसे में इस वीर भूमि ने अनेक वीर सपूत पैदा किए जिन्होंने

जब अंग्रेजों के अत्याचारों से त्रस्त हमारे देश में चारों ओर हाहाकार मची हुई थी तो ऐसे में इस वीर भूमि ने अनेक वीर सपूत पैदा किए जिन्होंने अंग्रेजों की दासता से मुक्ति दिलाने की खातिर अनेकों संघर्षपूर्ण प्रयत्न करते हुए हंसते-हंसते देश की खातिर प्राण न्यौछावर कर दिए। 

इन्हीं में तीन पक्के क्रांतिकारी दोस्त थे शहीद-ए-आजम भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव। इन तीनों ने अपने प्रगतिशील और क्रांतिकारी विचारों से भारत के नौजवानों में स्वतंत्रता के प्रति ऐसी दीवानगी पैदा कर दी कि अंग्रेज सरकार को डर लगने लगा था कि कहीं उन्हें यह देश छोड़ कर भागना न पड़ जाए। 

तीनों ने ब्रिटिश सरकार की नाक में इतना दम कर दिया था जिसके परिणामस्वरूप उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 24 मार्च 1931 को तीनों को एक साथ फांसी देने की सजा सुना दी गई। इनकी फांसी की बात सुनकर लोग इतने भड़क चुके थे कि उन्होंने भारी भीड़ के रूप में उस जेल को घेर लिया था। 

अंग्रेज इतने भयभीत थे कि कहीं विद्रोह न हो जाए तो इसी बात को मद्देनजर रखते हुए उन्होंने एक दिन पहले यानी 23 मार्च 1931 की रात को ही भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी और चोरी छिपे उनके शवों को जंगल में ले जाकर जला दिया। जब लोगों को इस बात का पता चला तो वे गुस्से में उधर भागे आए। 

अपनी जान बचाने और सबूत मिटाने के  लिए अंग्रेजों ने उन वीरों की अधजली लाशों को बड़ी बेरहमी से नदी में फिकवा दिया। छोटी उम्र में आजादी के दीवाने तीनों युवा अपने देश पर कुर्बान हो गए। आज भी ये तीनों युवा पीढ़ी के आदर्श हैं। 

शहीद-ए-आजम भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु इन तीनों की शहादत को पूरा संसार सम्मान की नजर से देखता है और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में यह एक महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। जहां एक तरफ भगत सिंह और सुखदेव कालेज के युवा स्टूडैंट्स के रूप में भारत को आजाद कराने का सपना पाले थे वहीं दूसरी ओर राजगुरु विद्याध्ययन के साथ कसरत के काफी शौकीन थे और उनका निशाना भी काफी तेज था। 

वे सब चंद्रशेखर आजाद के विचारों से इतने प्रभावित  थे कि उन्होंने क्रांतिकारी दल में शामिल होकर अपना विशेष स्थान बना लिया था। इस क्रांतिकारी दल का एक ही उद्देश्य था कि सेवा और त्याग की भावना मन में लिए देश पर प्राण न्यौछावर कर सकने वाले नौजवानों को तैयार करना।

लाला लाजपतराय जी की मौत का बदला लेने के लिए 17 दिसम्बर 1928 को भगत सिंह और राजगुरु ने अंग्रेज अफसर सांडर्स पर गोलियां चलाईं और वहां से भाग निकले। हालांकि, वे रक्तपात के पक्ष में नहीं थे लेकिन अंग्रेजों के अत्याचारों और मजदूर विरोधी नीतियों ने उनके भीतर आक्रोश भड़का दिया था। अंग्रेजों को यह जताने के लिए कि अब उनके अत्याचारों से तंग आकर पूरा हिन्दोस्तान जाग उठा है, भगत सिंह ने केंद्रीय असैंबली में बम फैंकने की योजना बनाई। वे यह भी चाहते थे किसी भी तरह का खून-खराबा न हो। 

इस काम के लिए उनके दल की सर्वसम्मति से भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त को इस काम के लिए चुना गया। कार्यक्रम के अनुसार 8 अप्रैल 1929 को केंद्रीय असैंबली में ऐसी जगह बम फैंके गए थे जहां कोई मौजूद नहीं था। भगत सिंह चाहते तो वहां से भाग सकते थे लेकिन उन्होंने वहीं अपनी गिरफ्तारी दी। ‘इंकलाब-जिंदाबाद’ के नारे लगाते हुए उन्होंने कई पर्चे हवा में उछाले थे ताकि लोगों तक उनका संदेश पहुंच सके।

भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को आज आजादी के जोशीले दीवानों के रूप में जाना जाता है लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि जेल में लम्बे समय तक रहते हुए उन्होंने कई विषयों पर अध्ययन किया और अनेकों लेख लिखे। उनकी मृत्यु के बाद उनके अनेकों लेख प्रकाशित किए गए। जिनके जरिए वे समाज में एक क्रांति लाना चाहते थे। 

वे एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना चाहते थे जहां सभी संबंध समानता पर आधारित हों व हरेक को उसकी  मेहनत का पूरा हक मिले। अक्तूबर 1929 को भगत सिंह ने जेल से एक पत्र हिन्दुस्तान के युवाओं के नाम लिखा जिसमें उन्हें संदेश दिया गया था कि स्वतंत्रता प्रत्येक मनुष्य का अधिकार है। 

जेल में इन तीनों और साथियों पर अत्याचार किए गए। लम्बी चली इनकी भूख-हड़ताल को तोडऩे के लिए अंग्रेजों ने अमानवीय यातनाएं दीं लेकिन वे विफल रहे। छोटी आयु में ही देश पर जान कुर्बान करने वाले इन क्रांतिकारी शहीदों को शत्-शत् प्रणाम। 

—सरिता शर्मा 

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