Edited By ,Updated: 12 Oct, 2016 08:07 AM
वाल्मीकि रामायण के उत्तर काण्ड के अनुसार आज भरत मिलाप पर्व है। दशहरा से अगले दिन आश्विन शुक्ल एकादशी को इस उत्सव का आगमन होता है।
वाल्मीकि रामायण के उत्तर काण्ड के अनुसार आज भरत मिलाप पर्व है। दशहरा से अगले दिन आश्विन शुक्ल एकादशी को इस उत्सव का आगमन होता है। इस त्यौहार को भरत मिलाप इसलिए कहा जाता है क्योंकि भगवान श्रीराम 14 वर्ष के वनवास उपरांत अयोध्या वापिस लौटे थे और अपने भाई भरत से गले मिले थे।
विष्णु अवतार श्रीराम ने राक्षसों का संहार करने के लिए धरती पर अवतार धारण किया था। यदि वो अयोध्या के राजा बन जाते तो धरती पर दैत्य सम्राज्य का अंत कैसे होता इसलिए कैकेयी जी का प्रेम धन्य है, उन्होंने सदा के लिए कलंक का टीका स्वीकार कर श्री राम के काज में सहयोग दिया।
शास्त्रों के अनुसार महाराज दशरथ ने कैकेय नरेश की राजकुमारी कैकेयी से विवाह किया था। यह महाराज का अंतिम विवाह था, इससे पूर्व उनके दो विवाह हो चुके थे। महारानी कैकेयी अत्यंत पति परायणा थीं। महाराज उनसे सर्वाधिक प्रेम करते थे।
एक समय देवताओं और असुरों में संग्राम होने लगा। महाराज दशरथ को देवराज इंद्र ने अपनी सहायता के लिए आमंत्रित किया। महारानी कैकेयी भी युद्ध में उनके साथ गईं। घोर युद्ध करते हुए महाराज दशरथ थक गए तथा अवसर पाकर असुरों ने उनके सारथी को मार डाला।
कैकेयी जी ने आगे बढ़कर रथ की लगाम को अपने मुख में ले लिया और वह धनुष चढ़ाकर बाणों की वृष्टि करते हुए अपने पति की रक्षा करने लगीं। महाराज सावधान हुए और दूसरा सारथी आया, तब महारानी अपने स्थान से हटीं।
सहसा कैकेयी जी ने देखा कि शत्रु के बाण से रथ का धुरा कट गया है। वह रथ से कूद पड़ीं और धुरे के स्थान पर अपनी पूरी भुजा ही लगा दी। दैत्य पराजित होकर भाग गए। तब महाराज को उनके अद्भुत धैर्य और साहस का पता लगा। देव वैद्यों ने महारानी की घायल भुजा को शीघ्र ठीक कर दिया। महाराज दशरथ ने प्रसन्न होकर दो बार अपनी प्राण रक्षा करने के लिए महारानी को दो वर देने का वचन दिया। महाराज के आग्रह करने पर ‘मुझे जब आवश्यकता होगी तब मांग लूंगी।’
यह कह कर उन्होंने बात टाल दी। एक दिन महारानी कैकेयी की दासी मंथरा दौड़ती हुई आई। उसने महारानी से कहा, ‘‘रानी! कल प्रात: महाराज ने श्री राम को युवराज बनाने की घोषणा की है। आप बड़ी भोली हैं। आप समझती हैं कि आपको महाराज सबसे अधिक चाहते हैं। यहां चुपचाप सब हो गया और आपको पता तक नहीं।’’
तेरे मुख में घी-शक्कर! अहा, मेरा राम कल युवराज होगा। यह मंगल समाचार सुनाने के लिए मैं तुम्हें यह हार पुरस्कार में प्रदान करती हूं।’’ कैकेयी जी ने प्रसन्नता से कहा।
मंथरा ने कुटिलता से कहा, ‘‘अपना हार रहने दीजिए। कौन भरत युवराज हो गए, जो आप उपहार देने चली हैं। राजा आप से अधिक प्रेम करते हैं। इसलिए कौशल्या जी आप से ईर्ष्या करती हैं। अवसर पाकर उन्होंने अपने पुत्र को युवराज बनाने के लिए महाराज को तैयार कर लिया। श्री राम राजा होंगे और आपको कौशल्या जी की दासी बनना पड़ेगा। मेरा क्या। मैं तो दासी हूं और दासी ही रहूंगी।’’
नियति वश कैकेयी ने मंथरा की बातों का विश्वास कर लिया और कोप भवन के एकांत में महाराज दशरथ से श्री राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास और भरत के लिए राज्य का वरदान मांग लिया। श्री राम के वियोग में महाराज दशरथ ने शरीर छोड़ दिया। कैकेयी जी बड़े ही उत्साह से भरत के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थीं। भरत को आया जानकर वह बड़े ही उत्साह से आरती सजा कर उनके स्वागत के लिए बढ़ीं किन्तु जिस भरत पर उनकी सम्पूर्ण आशाएं केंद्रित थीं, उन्हीं ने उनको दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फैंक दिया। भरत ने उन्हें मां कहना भी छोड़ दिया। जिन कौशल्या से वे प्रतिशोध लेना चाहती थीं, भरत की दृष्टि में उन्हीं कौशल्या का स्थान मां से भी ऊंचा हो गया।
जब भरत जी श्री राम की चरण पादुका लेकर अयोध्या के लिए विदा होने लगे तो एकांत में कैकेयी ने श्री राम से कहा, ‘‘आप क्षमाशील हैं। करूणासागर हैं। मेरे अपराधों को क्षमा कर दें। मेरा हृदय अपने पाप से दग्ध हो रहा है।’’
‘‘आपने कोई अपराध नहीं किया है। सम्पूर्ण संसार की निंदा और अपयश लेकर भी आपने मेरे और देवताओं के कार्य को पूर्ण किया है। मैं आप से अत्यंत प्रसन्न हूं।’’
श्री राम ने कैकेयी को समझाया। वनवास से लौटने पर श्री राम सबसे पहले कैकेयी के भवन में गए। पहले उन्हीं का आदर किया।