Edited By Ashutosh Chaubey,Updated: 07 Jan, 2025 09:39 PM
दिल्ली की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का सफर साल 1993 से अब तक कई उतार-चढ़ावों से भरा रहा है। 1993 में पहली विधानसभा के गठन के साथ ही बीजेपी ने सत्ता में कदम रखा, लेकिन उसके बाद से पार्टी को लगातार चुनौतियों का सामना करना पड़ा।
नेशनल डेस्क: दिल्ली की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का सफर 1993 से लेकर अब तक कई उतार-चढ़ावों से भरा रहा है। 1993 में दिल्ली में पहली विधानसभा चुनाव के साथ ही बीजेपी ने सत्ता में कदम रखा, जब मदन लाल खुराना ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। बीजेपी के लिए यह यात्रा आसान नहीं रही, क्योंकि पार्टी को लगातार चुनौतियों का सामना करना पड़ा और समय-समय पर अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी। बीजेपी का वोट शेयर, जो पहले काफी सीमित था, धीरे-धीरे बढ़ते हुए दिल्ली की राजनीति में मजबूत भूमिका अदा करने लगा।
बीजेपी ने कई बार दिल्ली में सत्ता हासिल की, लेकिन उसे हमेशा विपक्ष से कड़ी टक्कर मिली। पहले कांग्रेस और फिर आम आदमी पार्टी (AAP) के उभरने के बाद, बीजेपी को दिल्ली में अपनी स्थिति बनाए रखने के लिए कई रणनीतिक बदलावों की जरूरत पड़ी। पार्टी के नेताओं ने अपने नेतृत्व में बदलाव, चुनावी रणनीतियों में सुधार और दिल्लीवासियों के बीच अपनी पहुंच को मजबूत किया, जिसके परिणामस्वरूप बीजेपी ने दिल्ली में अपनी राजनीति को और अधिक प्रभावी बना लिया। आइए, दिल्ली विधानसभा चुनावों में बीजेपी के प्रदर्शन, वोट शेयर और नेतृत्व पर एक विस्तृत नजर डालते हैं।
यह भी पढ़ें: चुनावी भागीदारी में नया इतिहास रचने की तैयार भारत, जल्द बनेगा 1 अरब मतदाताओं का देश
साल 1993 पहली जीत और सत्ता में आगमन
दिल्ली में साल 1993 में पहली विधानसभा चुनाव हुए, जिसमें बीजेपी ने 47.82% वोट शेयर के साथ 49 सीटें जीतकर सरकार बनाई। इस चुनाव में कांग्रेस को 34.48% वोट मिले और वह 14 सीटों पर सिमट गई। बीजेपी के मदन लाल खुराना मुख्यमंत्री बने और उनके नेतृत्व में पार्टी ने दिल्ली में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज की।
साल 1998 से 2008 के बीच दिल्ली की राजनीति में कांग्रेस के उदय के साथ बीजेपी का संघर्ष
साल 1998 के चुनावों में कांग्रेस ने 47.75% वोट शेयर के साथ 52 सीटें जीतकर सत्ता हासिल की, जबकि बीजेपी 34% वोट शेयर के साथ 15 सीटों पर सिमट गई। शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस ने लगातार तीन बार (1998, 2003, 2008) चुनाव जीते, जिससे बीजेपी को विपक्ष में बैठना पड़ा। इस अवधि में बीजेपी का वोट शेयर 34% से 36% के बीच रहा, लेकिन वह सत्ता में वापसी नहीं कर सकी।
साल 2013, आम आदमी पार्टी का उदय और त्रिशंकु विधानसभा
साल 2013 के चुनावों में आम आदमी पार्टी (AAP) के उदय ने दिल्ली की राजनीति में नया मोड़ लाया। बीजेपी ने 32.19% वोट शेयर के साथ 31 सीटें जीतीं, जबकि AAP ने 29.49% वोट शेयर के साथ 28 सीटें हासिल कीं। कांग्रेस का वोट शेयर घटकर 24.55% रह गया और वह 8 सीटों पर सिमट गई। इस त्रिशंकु विधानसभा में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला।
साल 2015, AAP की प्रचंड जीत और बीजेपी की हार
साल 2015 के चुनावों में AAP ने 54.3% वोट शेयर के साथ 67 सीटों पर प्रचंड जीत हासिल की, जबकि बीजेपी का वोट शेयर घटकर 32.2% रह गया और वह मात्र 3 सीटें जीत सकी। कांग्रेस का प्रदर्शन और भी खराब रहा; उसे 9.7% वोट मिले और वह एक भी सीट नहीं जीत पाई। इस चुनाव में बीजेपी की हार ने पार्टी को अपनी रणनीतियों पर पुनर्विचार करने पर मजबूर किया।
साल 2020, बीजेपी का वोट शेयर बढ़ा, लेकिन सीटें नहीं
साल 2020 के चुनावों में बीजेपी का वोट शेयर बढ़कर 38.5% हो गया, लेकिन सीटों की संख्या केवल 8 रही। वहीं, AAP ने 53.6% वोट शेयर के साथ 62 सीटें जीतीं। कांग्रेस का वोट शेयर घटकर 4.26% रह गया और वह फिर से शून्य पर रही। इस चुनाव में बीजेपी ने अपने वोट शेयर में सुधार किया, लेकिन सीटों की संख्या में अपेक्षित बढ़ोतरी नहीं हो सकी।
यह भी पढ़ें: दिल्ली विधानसभा चुनावों में BSP का ऐतिहासिक विश्लेषण, जानें 15.2% से 0.8% तक सफर
दिल्ली में बीजेपी की सत्ता में वापसी न कर पाने के कारण
दिल्ली में बीजेपी के सत्ता में लौटने की उम्मीदें एक बार फिर चकनाचूर हो गईं। यह स्थिति कई कारणों से उत्पन्न हुई, जिनमें से सबसे प्रमुख था पार्टी के पास मजबूत चेहरे की कमी। दिल्ली में चुनावी मैदान में बीजेपी ने एक समय हर्षवर्धन को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किया था, लेकिन उसके बाद से पार्टी के पास कोई ऐसा चेहरा नहीं था जो मतदाताओं को आकर्षित कर सके।
1.चेहरे की कमी और नेतृत्व संकट
दिल्ली में बीजेपी के लिए एक बड़ा संकट यह रहा कि वह एक स्थिर और लोकप्रिय नेतृत्व पेश नहीं कर पाई। हर्षवर्धन के बाद पार्टी ने कई बार मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार को लेकर सवाल उठाए, लेकिन किसी भी उम्मीदवार को वह प्रभाव नहीं मिल पाया जो दिल्ली की राजनीति में सशक्त विपक्ष का सामना कर सके।
2.कांग्रेस की लगातार हार
कांग्रेस का लगातार चुनावों में हारना भी बीजेपी के लिए मुश्किल बढ़ाने वाला कारण बना। कांग्रेस का कमजोर होना एक ओर अवसर की तरह दिखा, लेकिन इसके साथ ही विपक्षी दलों के लिए एक मजबूत जगह बनने का अवसर भी था। कांग्रेस के कमजोर होने का प्रभाव दिल्ली में बीजेपी की संभावनाओं पर पड़ा, क्योंकि राज्य में कांग्रेस का कोई प्रभावी नेता नहीं था जो बीजेपी को चुनौती दे सके।
3.आम आदमी पार्टी (AAP) की बढ़ती ताकत
दिल्ली में आम आदमी पार्टी (AAP) की मजबूत उपस्थिति ने भी बीजेपी की राह कठिन कर दी। अरविंद केजरीवाल की नेतृत्व में AAP ने दिल्ली में अपनी पकड़ मजबूत की है। पार्टी ने शिक्षा, स्वास्थ्य और बिजली जैसे मुद्दों पर बेहतर काम किया, जिसने उन्हें आम जनता में लोकप्रिय बना दिया। केजरीवाल ने अपनी राजनीति में ‘काम के आधार पर वोट’ की धारणा को सफलतापूर्वक स्थापित किया, जो बीजेपी के लिए चुनौती बन गई।
4.वोट शेयर और चुनावी परिणाम
दिल्ली में 2020 विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी ने 62 सीटों पर जीत हासिल की थी, जबकि बीजेपी केवल 8 सीटों पर सिमट कर रह गई। इसके साथ ही कांग्रेस भी अपना खाता नहीं खोल पाई। AAP के मजबूत वोट शेयर ने बीजेपी की उम्मीदों को चकनाचूर कर दिया। इससे साफ हुआ कि बीजेपी का मतदाता आधार कमजोर पड़ चुका है और उसे फिर से अपनी राजनीति में ठोस बदलाव करने की आवश्यकता है।
बीजेपी के दिल्ली में मुख्यमंत्री और उनका कार्यकाल
दिल्ली में बीजेपी के तीन नेताओं ने मुख्यमंत्री पद संभाला:
मदन लाल खुराना (1993-1996): खुराना के नेतृत्व में दिल्ली में बुनियादी ढांचे के विकास पर जोर दिया गया। उन्होंने सड़कों, फ्लाईओवरों और सार्वजनिक परिवहन में सुधार के लिए कई पहल कीं।
साहिब सिंह वर्मा (1996-1998): वर्मा के कार्यकाल में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के प्रयास किए गए। उन्होंने ग्रामीण क्षेत्रों के विकास पर विशेष ध्यान दिया।
सुषमा स्वराज (अक्टूबर 1998 - दिसंबर 1998): सुषमा स्वराज ने मुख्यमंत्री के रूप में संक्षिप्त कार्यकाल में महिलाओं की सुरक्षा और सशक्तिकरण के लिए कई योजनाएं शुरू कीं।