Edited By Parveen Kumar,Updated: 24 Sep, 2024 01:04 AM
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा है कि कुछ लोगों द्वारा मुआवजा हासिल करने के लिए अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (उत्पीड़न निषेध) कानून का दुरुपयोग किया जा रहा है।
नेशनल डेस्क : इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा है कि कुछ लोगों द्वारा मुआवजा हासिल करने के लिए अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (उत्पीड़न निषेध) कानून का दुरुपयोग किया जा रहा है। न्यायमूर्ति मंजू रानी चौहान ने कहा कि प्राथमिकी दर्ज करने से पूर्व एक गहन सत्यापन प्रक्रिया अपनाए जाने की जरूरत है जिसमें कानून प्रवर्तन एजेंसियों को शिकायतों की विश्वसनीयता परखनी होगी ताकि इस कानून का दुरुपयोग रोका जा सके। अदालत ने कहा, “प्राथमिकी दर्ज करने से पूर्व एजेंसियां अनिवार्य रूप से मध्यस्थता करें जहां दोनों पक्ष कानूनी कार्रवाई से पूर्व विवादों का सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटान करने का प्रयास कर सकें।”
न्यायाधीश ने कहा, “पुलिस और न्यायिक अधिकारियों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम कराए जाने चाहिए जिससे उन्हें संभावित दुरुपयोग की पहचान करने में मदद मिल सके। साथ ही इन शिकायतों पर नजर रखने के लिए एक समर्पित निगरानी निकाय का गठन किया जा सकता है। इसके अलावा, इस कानून के उद्देश्यों और झूठे दावे दाखिल करने के परिणामों के बारे में समुदायों को जागरूक करने के लिए जनजागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए।” उच्च न्यायालय ने कहा कि इन उपायों से ना केवल इस कानून की सत्यनिष्ठा की रक्षा करने, बल्कि वास्तविक पीड़ित व्यक्ति को न्याय दिलाने में मदद मिलेगी। न्यायाधीश ने याचिकाकर्ता विहारी और अन्य के खिलाफ संभल जिला अदालत में एससी/एसटी कानून 1989 के तहत चल रहे आपराधिक मुकदमे रद्द करते हुए यह टिप्पणी की।
इस मामले में पीड़ित ने अदालत में स्वीकार किया कि उसने ग्रामीणों के दबाव में एक झूठी प्राथमिकी दर्ज कराई थी और वह इस मुकदमे को आगे चलाने का इच्छुक नहीं है। अदालत ने 18 सितंबर को दिए अपने आदेश में कथित पीड़ित व्यक्ति को निर्देश दिया कि वह राज्य सरकार से मुआवजे के तौर पर मिले 75,000 रुपये लौटाए। उच्च न्यायालय ने प्रदेश के पुलिस महानिदेशक को इस कानून के संबंध में अदालत द्वारा की गई टिप्पणियों पर विचार करने के लिए जिलों के पुलिस अधिकारियों को एक आवश्यक सर्कुलर जारी करने का भी निर्देश दिया।