Edited By Anil dev,Updated: 14 Nov, 2022 04:36 PM
पहले जमाने में लोग चिट्ठियों को जरिए अपनों को संदेश भेजा करते थे और इसे अपनी सही जगह पर पहुंचाने का काम पोस्ट मैन यानि डाकिए के जरिए किया जाता था। आज जमाना चाहे कितना भी क्यों न बदल गया हो, चिट्ठियों का जगह अब एस एम एस ने ले ली है, व्हाट्स एप,...
नेशनल डेस्क: पहले जमाने में लोग चिट्ठियों को जरिए अपनों को संदेश भेजा करते थे और इसे अपनी सही जगह पर पहुंचाने का काम पोस्ट मैन यानि डाकिए के जरिए किया जाता था। आज जमाना चाहे कितना भी क्यों न बदल गया हो, चिट्ठियों का जगह अब एस एम एस ने ले ली है, व्हाट्स एप, फेसबुक के अलावा और भी बहुत सी सोशल साइट्स लोग घंटों चैटिंग करते रहते हैं लेकिन डाकिए की अहमियत आज भी बहुत है।
इस समय हमारे देश में 37,160 डाकियों में 2,708 महिला डाकिया हैं, लेकिन आज तक एक भी महिला मुस्लिम समुदाय से नहीं है। हैदराबाद (आंध्र प्रदेश) की जमीला पहली बार देश की पहली मुस्लिम महिला डाकिया बनी हैं। आमतौर पर डाक विभाग जिस तरह से काम करता है, महिलाएं उसके अनुकूल नहीं होती हैं और उन्हें वहां मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। जून 2015 में जब सोनीपत (हरियाणा) की सरोज रानी अपने जिले की पहली महिला डाकिया बनीं, तो न केवल पूरे डाक विभाग में बल्कि आम जनता में भी एक नया बदलाव आया। और कहा गया कि अब एक नया युग आ गया है।
सरोज रानी ने करनाल में डाक परीक्षा में 83 फीसदी अंक हासिल कर मेरिट लिस्ट में दूसरा स्थान हासिल किया था. यानी जिले में प्रथम आने से सरोज रानी एक नंबर से रह गईं थीं। पिछले साल जून और सितंबर में हिमाचल प्रदेश, झारखंड और जम्मू-कश्मीर से खबरें आई थीं कि अदिति शर्मा अपने जिले की पहली महिला डाकिया बन गई हैं। हिमाचल के कांगड़ा जिले की रक्कड़ तहसील की रहने वाली अदिति शर्मा ने डाक विभाग से जुड़कर लोगों का दिल जीता। उन्होंने अपने परिवार की गरीबी के बावजूद विज्ञान में स्नातक करने के बाद यह मुकाम हासिल किया। उन्होंने पोस्टमैन प्रतियोगी परीक्षा में टॉप किया था। लेकिन इससे पहले कि हम इस कहानी के मुख्य पात्र पर पहुँचें, आइए समझते हैं कि डाक विभाग में और महिलाओं को नियुक्त करने की आवश्यकता क्या है।
दुनिया कितनी भी बदल गई हो, मोबाइल फोन, ई-मेल, कोरियर, फेसबुक ने सूचनाओं के आदान-प्रदान की दुनिया को आधुनिक बना दिया है, लेकिन फिर भी सरकारी डाक विभाग की जिम्मेदारियां और जरूरतें जस की तस हैं। आज डाक परिवहन के नए साधन विकसित हो गए हैं, फिर भी गाँव पहले की तरह सरकारी डाक सेवाओं पर निर्भर हैं। ऐसा कहा जाता है कि एक डाकिया हर दिन कम से कम एक सौ पच्चीस सौ किलोमीटर की सफ़र करता है, बारिश हो या धूप। डाक को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के लिए सरकार के पास नौकर, चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी आदि भी होते हैं।
हालांकि डाक व्यवस्था की सबसे मजबूत कड़ी पोस्टमैन या पोस्टवुमन होती है। डाक क्षेत्र में इसे एक गंभीर चूक के रूप में भी देखा जा रहा है कि डाक विभाग में महिलाओं की कमी है। इनकी संख्या आज भी कम है। जरा सोचिए एक अनपढ़ गांव की महिला जिसका पति प्रदेश में है, अगर डाकिया एक पत्र लाता है, तो वह किसे पढ़ाए ताकि पत्र की गोपनीयता बची रहे । ऐसे में यदि पत्र वाहक महिला डाकिया है तो वह उससे पढ़ सकती है। इस प्रकार, महिला डाकिया ऐसी परेशानियों में शामिल हो सकती है। एक पत्र एक बहुत ही महत्वपूर्ण चीज है। पत्र के भेजने वाले और पाने वाले के बीच की कड़ी को एक डाकिया द्वारा नियंत्रित किया जाता है। ऐसे में महिला डाकिया की अहमियत को समझा जा सकता है।
ऐसे में अगर किसी डाक कर्मचारी को भारत की पहली महिला डाकिया होने का सम्मान मिले तो निश्चित ही यह बहुत महत्वपूर्ण बात हो जाती है। मुस्लिम समुदाय से होने के कारण हैदराबाद के महबूबाबाद जिले में गरला मंडल की लेडी पोस्टमैन जमीला की नियुक्ति भी एक खुशी की बात है. अगर उनके पति ख्वाजा मियां आज इस दुनिया में होते तो उन्हें घर-घर ख़त बांटने की जरूरत क्यों पड़ती, लेकिन कुछ साल पहले उनके पति अपने बच्चों और बच्चों को छोड़कर इस दुनिया को छोड़कर चले गए। उन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। इतनी परेशानियों के बावजूद जमीला ने हार नहीं मानी। इस प्रकार वह घर की देखभाल करती रही।
संयोग से अब उन्हें पति की जगह पोस्टमैन की नौकरी मिल गई है। वह देश की पहली मुस्लिम महिला पोस्टमैन बन गई हैं। वे अपने क्षेत्र में डाक का सामान घर-घर पहुंचाती हैं। खुशी की बात यह है कि इस महिला डाकिया की बड़ी बेटी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने वाली है और छोटी बेटी भी डिप्लोमा कर रही है। ख्वाजा मियां की मौत के वक्त जमीला की बड़ी बेटी पांचवी और छोटी तीसरी कक्षा में थी। अन्य महिला डाकियों की तरह जिन्हें डाक पहुंचाने में दिक्कतों का सामना करना पड़ता है, इन्हें भी इस स्थिति से जूझना पड़ता है।
शुरुआत में उनके लिए डाक वितरण का काम आसान नहीं था। वह साइकिल चलाना भी नहीं जानती थी। ऐसे में गर्मी, बारिश या सर्दी में लंबी दूरी तय कर घर-घर जाकर चिट्ठियां पहुंचाना उनके लिए आसान काम नहीं था। अब उन्होंने साइकिल चलाना सीख लिया है। उन्हें अपनी नौकरी से केवल 6,000 रुपये मिलते हैं, जिससे परिवार चलाना एक बड़ा संघर्ष बन जाता है। इसी वजह से उन्होंने रोजी-रोटी का दूसरा रास्ता अपनाया है। और वह यह कि साड़ियां बेचकर हर महीने आठ से दस हजार रुपये की अतिरिक्त कमाई करती हैं।