Edited By Ashutosh Chaubey,Updated: 09 Jan, 2025 04:11 PM
उत्तराखंड के देहरादून में 30 साल पहले हुए ट्रिपल मर्डर केस में एक अहम बदलाव आया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपनी गलती सुधारते हुए एक ऐसे आरोपी को रिहा किया, जिसे पहले नाबालिग होने के बावजूद फांसी की सजा दी गई थी।
नेशनल डेस्क: उत्तराखंड के देहरादून में 30 साल पहले हुए ट्रिपल मर्डर केस में एक अहम बदलाव आया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपनी गलती सुधारते हुए एक ऐसे आरोपी को रिहा किया, जिसे पहले नाबालिग होने के बावजूद फांसी की सजा दी गई थी। इस मामले में 25 साल बाद आरोपी की उम्र के प्रमाणों के आधार पर फैसला बदलते हुए उसे जेल से रिहा कर दिया गया। यह केस न सिर्फ न्यायिक प्रक्रिया में हुई बड़ी चूक का खुलासा करता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि न्यायपालिका कभी-कभी समय के साथ अपनी गलतियों को सुधारने का साहस दिखाती है।
जानें पूरा मामला क्या था?
30 साल पहले, 1994 में देहरादून में एक नृशंस त्रिपल मर्डर हुआ था। उत्तराखंड के एक रिटायर्ड कर्नल, उनके बेटे और बहन को नौकर ओमप्रकाश ने बेरहमी से मार डाला। ओमप्रकाश कर्नल साहब के घर पर नौकर के रूप में काम करता था। घरवालों के साथ उसकी कई बार अनबन हो चुकी थी, जिससे तंग आकर कर्नल साहब ने उसे नौकरी से निकालने का फैसला किया। यह कदम ओमप्रकाश के लिए सहन करना मुश्किल हो गया और उसने गुस्से में आकर परिवार के तीन सदस्यों की हत्या कर दी। ओमप्रकाश ने कर्नल की पत्नी पर भी हमला किया था, लेकिन वह किसी तरह जान बचाने में कामयाब रही।
हत्या के बाद ओमप्रकाश फरार हो गया, लेकिन 1999 में पश्चिम बंगाल से उसे गिरफ्तार कर लिया गया। निचली अदालत ने उसे फांसी की सजा सुनाई, जो बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी बरकरार रखी। हालांकि, ओमप्रकाश ने बार-बार अपनी दलील दी कि वह उस वक्त नाबालिग था, लेकिन यह आरोप अदालतों ने नजरअंदाज कर दिया।
राष्ट्रपति की दया याचिका और उम्रकैद की सजा
2012 में ओमप्रकाश ने राष्ट्रपति के पास दया याचिका दाखिल की, और राष्ट्रपति ने उसकी फांसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया। इसके बावजूद, ओमप्रकाश की रिहाई पर शर्त रखी गई कि जब तक वह 60 साल का नहीं हो जाता, तब तक उसे जेल में रहना होगा।
नाबालिग होने के सबूतों पर नया खुलासा हुआ
हाल ही में, ओमप्रकाश ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर यह साबित करने की कोशिश की कि वह उस समय नाबालिग था। इसके लिए उसने हड्डी की जांच रिपोर्ट और स्कूल रिकॉर्ड पेश किए। यह सबूत इस तथ्य की पुष्टि कर रहे थे कि ओमप्रकाश की उम्र घटना के समय केवल 14 वर्ष थी। इससे पहले अदालतों ने उसकी इस दलील को गंभीरता से नहीं लिया था।
सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला, गलती को सुधारा
सुप्रीम कोर्ट ने ओमप्रकाश के नाबालिग होने के प्रमाणों को स्वीकार करते हुए मामले की समीक्षा की। जस्टिस एमएम सुंदरेश और जस्टिस अरविंद कुमार की बेंच ने कहा कि ओमप्रकाश ने निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक अपनी नाबालिग होने की दलील दी थी, लेकिन हर बार अदालतों ने इसे नजरअंदाज किया। कोर्ट ने यह माना कि जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के तहत एक नाबालिग को अधिकतम तीन साल की सजा ही दी जा सकती थी, लेकिन उसे 25 साल तक जेल में रखने का नतीजा न्यायिक प्रक्रिया की बड़ी चूक था। अदालत ने कहा कि ओमप्रकाश को अगर समय पर सही फैसला मिलता, तो वह अब तक समाज में सामान्य जीवन जी रहा होता।
सुप्रीम कोर्ट का अनोखा संदेश, अदालतों की जिम्मेदारी
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा कि जब किसी अभियुक्त के नाबालिग होने के प्रमाण मिलते हैं, तो अदालत को इसे सही तरीके से मान्यता देनी चाहिए और उसके मुताबिक सजा तय करनी चाहिए। यह मामला भारतीय न्याय व्यवस्था की एक बड़ी सीख है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने न केवल अपनी गलती मानी, बल्कि उसे सुधारने का भी कदम उठाया।