Edited By ,Updated: 09 Nov, 2015 09:49 AM
भगवान धन्वंतरि आयुर्वेद के आदि प्रवर्तक व स्वास्थ्य के अधिष्ठाता देवता होने से विश्व वंद्य हैं। सनातन धर्म के अनुसार भगवान विष्णु ने जगत त्राण हेतु 24 अवतार धारण किए हैं
भगवान धन्वंतरि आयुर्वेद के आदि प्रवर्तक व स्वास्थ्य के अधिष्ठाता देवता होने से विश्व वंद्य हैं। सनातन धर्म के अनुसार भगवान विष्णु ने जगत त्राण हेतु 24 अवतार धारण किए हैं जिनमें भगवान धन्वंतरि 12वें अंशावतार हैं अर्थात आप साक्षात् विष्णु अर्थात श्री हरि के रूप हैं। इनके प्रादुर्भाव का रोचक वृतान्त पुराणों में मिलता है। तदनुसार एक समय अवसर पाकर असुरों ने देवताओं को सताना प्रारंभ कर दिया। दुखी देवगण अपने राजा इंद्र के सम्मुख उपस्थित हुए और अपनी व्यथा कही।
इंद्र प्रमुख देवताओं के साथ भगवान ब्रह्मा की शरण में पहुंचे और उनसे इस परेशानी को दूर करने का निवेदन किया। ब्रह्मा ने उन्हें भगवान विष्णु के पास जाने का परामर्श दिया। तब सभी इंद्रादि देवगण भगवान विष्णु के समक्ष उपस्थित हुए और अपना दुख उन्हें कह सुनाया। तब द्रवित होकर भगवान विष्णु ने असुरों के शमन और देवगणों के अमरत्व के लिए विचार-विमर्श किया। देवों और दानवों की सामयिक संधि कराकर समुद्र मंथन की योजना बनाई।
एतदर्थ मंदराचल पर्वत को मंथन दंड, हरि रूप कूर्म को दंड आधार तथा वासुकि नागराज को रस्सी तथा समुद्र को नवनीत पात्र बनाया। देवों और दानवों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया जिसके फलस्वरूप निम्र 14 रत्न निकले-लक्ष्मी, कौस्तुभ मणि, कल्प वृक्ष, मदिरा, अमृत कलश धारी भगवान धन्वन्तरि, अप्सरा, उच्चैश्रवा नामक घोड़ा, विष्णु का धनुष, पांचजन्य शंख, विष, कामधेनु, चंद्रमा व ऐरावत हाथी।
समुद्र मंथन से सर्वप्रथम हलाहल विष की प्राप्ति हुई। विष की प्रचंडता से त्रस्त देवताओं की प्रार्थना पर शंकर भगवान ने उसको अपने कंठ में धारण किया। उसके पश्चात कामधेनु प्राप्त हुई जिसे ऋषियों को अर्पण कर दिया गया। फिर उच्चैश्रवा घोड़ा मिला जिसे दैत्यराज बाली को सौंप दिया गया इसके बाद प्रसिद्ध गजराज ऐरावत प्राप्त हुआ जो इंद्र को दे दिया गया। कौस्तुभ मणि विष्णु भगवान को और कल्पवृक्ष देवताओं को समर्पित किया गया। अप्सरा भी देवताओं को प्राप्त हुई। तत्पश्चात लक्ष्मी जी निकलीं जिन्हें प्रजा पालन परायण भगवान विष्णु का आश्रय प्राप्त हुआ। फिर वारुणी मदिरा निकली जिसे असुरों को सौंप दिया गया। अभी समुद्र मंथन हो ही रहा था, अभीष्ट वस्तु अमृत की प्राप्ति नहीं हुई थी।
अमृत प्राप्ति का श्रेय भगवान धन्वन्तरि के भाग्य में था। अत: इस बार अमर अवतरित भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए। आयुर्वेद शास्त्र, वनस्पति औषधि तथा अमृत हाथ में रखे हुए रत्न आभूषण व वनमाला धारण किए हुए भगवान धन्वंतरि का सुंदर रूप विश्व को लुभा रहा था। वे आयुर्वेद के प्रवर्तक, इंद्र के समान पराक्रमी व यज्ञांश भोजी थे। अमृत का कलश भगवान धन्वन्तरि के हाथों में देखते ही देव और दानव बड़े ही प्रसन्न हुए। चालाक राक्षसों ने सुधा कुंभ (अमृत कलश) को झपट कर ले लिया। तब भगवान ने विश्व मोहिनी-मोहिनी माया का स्वरूप धारण कर राक्षसों को मोहित करके मदिरा में ही आसक्त रखा और प्रजापालक देवताओं को अमृत का पान कराया जिससे वे अतुल शक्ति सम्पन्न व अमर होकर राक्षसों से सफल युद्ध कर विजयी बने।
इसके बाद अन्य चार रत्न समुद्र में से और प्राप्त हुए। गरुड़ पुराण में भगवान धन्वंतरि के व्रत की कथा का वर्णन आया है। तदनुसार ऋषियों के पूछने पर विष्णु जी ने कहा कि पृथ्वी एवं स्वर्ग में रोगों के कारण दुखी मानवों व देवों की दशा से आर्त होकर महायोगी नारद भगवान विष्णु के पास गए और अनेक व्याधियों से ग्रस्त प्राणियों के निरोग होने का उपाय पूछा। तब भगवान ने कहा कि मैं धन्वंतरि का अवतार ग्रहण कर तथा इंद्र से आयुर्वेद को प्राप्त करके सब लोकों को स्वस्थ बना दूंगा। साथ ही भगवान बोले कि मैं कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी, वीरवार हस्त नक्षत्र के शुभ दिन बनारस में धन्वन्तरि के रूप में अवतार लेकर आयुर्वेद का उद्धार करूंगा। नारद जी ने भगवान धन्वंतरि की पूजा विधि, उसका फल, नियम व समय तथा पूर्व में किसने किया आदि प्रश्र पूछे।
तब भगवान ने कहा कि कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन मैं प्रकट हुआ हूं अत: यह दिन धन-तेरस के नाम से विख्यात होगा। विधिवत् पूजन अक्षय फलप्रद होता है।
—डा. आर.वी. आचार्य